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________________ खवगे य खीणमोहे-जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा। तविवरीया काला संखेज्जगुणक्कमा होति।(67) सम्यक्त्वोत्पत्ति अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धी कर्म का विसंयोजन करने वाला, दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय करने वाला, कषायों का उपशम करने वाले 8-9-10 वे गुणस्थानवी जीव क्षीण, मोह, सयोगी केवली और अयोगी केवली दोनों प्रकार के जिन इन ग्यारह स्थानों में द्रव्य की अपेक्षा कर्मो की निर्जरा क्रम से असंख्यात गुणी असंख्यात गुणी अधिक अधिक होती जाती है और उसका काल इसके विपरीत है। क्रम से उत्तरोत्तर संख्यातगुणा हीन है। 1. सम्यग्दृष्टि (अविरत)- जैसे मद्यपायी के शराब का कुछ नशा उतरने पर अव्यक्त ज्ञान शक्ति प्रकट होती है, या दीर्घ निद्रा के हटने पर जैसे-ऊंघते-ऊंघते भी अल्प स्मृति होती है, या विष मूर्च्छित व्यक्ति को विष का एक देश वेग कम होने पर चेतना आती हैं अथवा पित्तादि विकार से मूर्च्छित व्यक्ति को मूर्छा हटने पर अव्यक्त चेतना आती है - उसी प्रकार अनन्तकाय आदि एकेन्द्रियों में बार-बार जन्म-मरण परिभ्रमण करते-करते विशेष लब्धि से दो इन्द्रिय आदि से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रस पर्याय मिलती है। कभी मुनिराज कथित जिन धर्म को सुनता है तथा कदाचित प्रतिबन्धी कर्मों के दब जाने से उस पर श्रद्धान भी करता है। जैसे-कतक फूल के सम्पर्क से जल का कीचड़ बैठ जाता है और जल निर्मल बन जाता है; उसी प्रकार मिथ्या उपदेशं से अति मलिन मिथ्यात्व के उपशम से आत्मा निर्मलता को प्राप्त कर श्रद्धानाभिमुख होकर तत्त्वार्थं श्रद्धान की अभिलाषा के सन्मुख होकर कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा करता है। प्रथम सम्यक्त्वआदि का लाभ होने पर अध्यवसाय (परिणामों) की विशुद्धि की प्रकर्षता से ये दसों स्थान क्रमश: असंख्येयगुणी निर्जरा वाले हैं। (सादि अथवा अनादि दोनों ही प्रकार का मिथ्यादृष्टि जीव जब करण लब्धि को प्राप्त करके उसके अध: प्रवृत्तकरण परिणामों को भी बिताकर अपूर्वकरण परिणामों को ग्रहण करता है तब वह सातिशय मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। इस सातिशय मिथ्यादृष्टि के जो कर्मो की निर्जरा होती है वह पूर्व की निर्जरा से अर्थात् सदा ही संसारावस्था या मिथ्यात्व दशा में होने वाली या पाई जाने 621 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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