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________________ और शून्यागार आदि किसी स्थान में व्याघ्र, सिंह, मृग, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि के अगोचर, वहाँ के चलने फिरने वालें चीटीं आदि ( जन्तुओं) से रहित तथा ~ (निर्जन्तु), समशीतोष्ण, अधिक शीत - उष्णता से रहित, अति वायु से रहित, वर्षा आतप आदि से रहित तथा सर्वत्र बाह्य और मन को विक्षेप करने वाले कारणों से रहित पवित्र और अनुकूल स्पर्श वाले भूमितल पर सुखपूर्वक पल्यंकासन से बैठ, शरीर को सरल और निश्चल करके अपनी गोदी में बाएँ हाथ पर दाहिना हाथ रखकर न खुले न बन्द, ईषत् खुले हुए नेत्र, दाँतों पर दाँत रखकर कुछ ऊपर किये मुख, सीधी कमर, निश्चिल मूर्ति, गम्भीर, प्रसन्नमुख, अनिमेष स्थिर सौम्यदृष्टि, निद्रा, आलस्य, कामराग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, विचिकित्सा आदि को छोड़कर मन्द मन्द श्वासोच्छ्वास लेने आदि परिकर्म से ( सहायक कारणों से ) युक्त मुमुक्षु साधु नाभि के ऊपर हृदय, मस्तक या शरीर के किसी भी अवयव पर अभ्यासानुसार चित्तवृत्ति को स्थिर करके प्रशस्त ध्यान करने का प्रयत्न करे ( प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकार एकाग्रचित होकर राग- - द्वेष मोह का उपशम जिसके हो गया है, ऐसा उपशान्त रागद्वेषीमोही कुशलता से शारीरिक क्रियाओं का निग्रह करने वाला, मन्द मन्द श्वासोच्छ्वास लेता हुआ, निश्चित लक्ष्य वाला और क्षमाशील मुमुक्षु बाह्याभ्यन्तर द्रव्य एवं पर्यायों का ध्यान करता हुआ वितर्क : (श्रुत) के सामर्थ्य से युक्त हो, अर्थ और व्यजंन, काय और वचन के पृथक्-पृथक् रूप से संक्रमण करने वाले और असीम बल और उत्साह से मन को सबल बनाकर अव्यवस्थित और भौथरे शस्त्र के द्वारा वृक्षछेदन के समान मोहकर्म की प्रकृतियों का उपशम एवं क्षय करने वाले पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान का ध्याता होता है । पुनः शक्ति की हीनता होने से योग से योगान्तर, व्यञ्जन .से . व्यञ्जनान्तर और अर्थ से अर्थान्तर को प्राप्त करता हुआ ध्यान के द्वारा मोहराज का विध्वंस करके इस ध्यान से निवृत्त हो जाता है, अर्थात् मोहकर्म का नाश करना ही पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान का कार्य है। यह ध्यान पृथक् पृथक् अर्थ, व्यंजन, योग की संक्रान्ति और श्रुत का आधार होने से सार्थक है । यह ध्यान यदि मोहकर्म का उपशमन करने वाला है तो छूट भी जाता है। इस विधि से मोहनीय कर्म का समूलतल उच्छेद करने की तीव्र भाव Jain Education International For Personal & Private Use Only 617 www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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