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के समान है। इसलिए आपकी जय हो, जय हो, जय हो, ! हे प्रभु! आप जगत् रुपी कमल को प्रकाशित करने के लि। सूर्य के समान हैं। इसलिये मेरे हृदय के मोहान्धकार को दूर कीजिये! दूर कीजिये! हे स्वामिन् ! कभी भी न नाश होने वाली अत्यन्त शांति दीजिये, दीजिये, दीजिये। हे भव्य जीवों के अद्वितीय मित्र आपके सिवाय मेरी रक्षा करने वाला संसार के दुःखो से बचाने वाला अन्य कोई नहीं है, नहीं है, नहीं है।
धर्मः सर्व सुखाकरो हितकरो धर्म बुधाश्चिन्वते। धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं धर्माय तस्मै नमः॥ धर्मान्नास्त्यपरं सुहृद्भवभृतां धर्मस्य मूलं दया। धर्मचित्तमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म मां पालय॥
धर्मरुपी चारित्र, स्वर्ग और मोक्ष सम्बन्धी सब सुखों का आकार अर्थात् उत्पत्ति स्थान है; सब जीवों के हित का करने वाला है। चारित्र रूप इस धर्म को सभी विवेकशील तीर्थंकर आदि महापुरुष भी संचित करते हैं। धर्म से ही मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है, उस धर्म के लिए सदा नमस्कार हो। धर्म के अतिरिक्त और कोई संसारी जीवों का उपकारक अर्थात् मित्र नहीं है। धर्म का मूल कारण दया है। इस कारण धर्म में मैं प्रतिदिन चित्त लगाता हूँ। हे धर्म तू मेरा पालन कर।
धम्मो मंगल मुक्किटं,अहिंसा संयमो तवो।
देवावि तस्स पणमंति,जस्स धम्मे सयामणो॥ ___ यह धर्म उत्कृष्ट मंगल है, अर्थात् मल को गालने वाला और सुख को देने वाला है। अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है, क्योंकि जिसका मन धर्म में सदा तल्लीन है उसको देव भी नमस्कार करते हैं।
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