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________________ कषायों के रुक जाने पर मूल से आस्रव रुक जाते हैं जैसे वन में जल के रुक जाने पर नौका नहीं चलती है। इंदियकसायदोसा णिग्घिप्पंति तवणाणविणएहिं। रज्जूहि णिघिप्पंति हु उप्पहगामी जहा तुरया॥(742) इन्द्रिय, कषाय और दोष ये तप, ज्ञान और विनय के द्वारा निगृहीत होते हैं। जैसे कुपथगामी घोड़े नियम से रस्सी से निगृहीत किये जाते हैं। मणवयणकायगुत्तिंदियस्स समिदीसु अप्पमत्तस्स। आसवदारणिरोहे णवकम्मरयासवो ण हवे॥(743) मन-वचन-काय से इन्द्रियों को वश में करने वाले, समितियों में अप्रमादी साधु के आस्रव का द्वार रूक जाने से नवीन कर्मरज का आस्रव नहीं होता है। मिच्छत्ता विरदीहिं य कसायजोगेहिं जं च आसवदि। दसणविरमणणिग्गहणिरोधणेहिं तु णासवदि॥(744) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इनसे जो कर्म आते हैं वे दर्शन, . विरति, निग्रह और निरोध से नहीं आते हैं। संवरफलं तु णिव्वाणमेत्ति संवरसमाधिसंजुत्तो। गिच्चुज्जुतो भावय संवर इणमो विसुद्धप्पा॥(745) - संवर का फल निर्वाण है, इसलिए संवर-समाधि से युक्त, नित्य ही उद्यमशील, विशुद्ध आत्मा मुनि इस संवर की भावना करे। __(9) निर्जरानुप्रेक्षा- वेदना-विपाकका नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है- अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफलके विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धा है। तथा परीषहके जीतने पर जो निर्जरा होतीहै वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुणदोषका चिन्तन करना निर्जरानप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले के इसकी कर्मनिर्जरा के लिए प्रवृत्ति होती है। 553 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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