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________________ कराता है। मोह भी महाशत्रु है जोकि निश्चित रूप से सत्पदार्थ में मूढ़ कर देता है। . धिद्धी मोहस्स सदा जेण हिदत्थेण मोहिदो संतो। ण विबुज्झदि जिणवयणं हिदसिवसुहकारणं मग्गंग(732) मोह को धिक्कार हो! धिक्कार हो कि, जिस हृदय में स्थित मोह के द्वारा मोहित होता हुआ यह जीव हित रूप शिव सुख का हेतु, मोक्षमार्ग रूप ऐसे जिन-वचन को नहीं समझता है। जिणवयण सद्दहाणो वि तिव्वमसुहगदिपावयं कुणइ। अभिभूदो जेहिं सदा धित्तेसिं रागदोसाणं॥(733) जिनके द्वारा पीड़ित हुआ जीव जिनवचन का श्रद्धान करते हुए भी तीव्र अशुभगति कारक पाप करता है उन राग और द्वेष को सदा धिक्कार हो। अणिहुदमणसा एदे इंदियविसया णिगेण्हिदुं दुक्खं। मंतोसहिहीणेण व दुट्ठा आसीविसा सप्पा॥(734) चंचल मन से इन इन्द्रिय-विषयों का निग्रह करना कठिन है। जैसे कि मन्त्र और औषधि के बिना दुष्ट आशीविष जाति वाले सर्पो को वश करना कठिन है। धित्ते सिमिंदियाणं जेसिं वसेदो दु पावमज्जणिय। . पावदि पावविवागं दुक्खमणंतं भवगदिसु॥(735) उन इन्द्रियों को धिक्कार हो कि, जिनके वश से पाप का अर्जन करके यह जीव चारों गतियों में पाप के फलरूप अनन्त दुःख को प्राप्त करता है। सण्णाहिं गारवेहिं अगुरुओ गुरुगं तु पावमज्जणिय। तो कम्मभारगुरुओ गुरुगं दुक्खं समणुभवइ॥(736) संज्ञा और गौरव से भारी होकर तीव्र पाप का अर्जन करके उससे कर्म __ के भार से गुरुहोकर महान् दुःखों का अनुभव करता है। 551 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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