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अण्णो अण्णं सोयदि मदोत्ति मम णाहओत्ति मण्णंतो।
अत्ताणं ण दु सोयदि संसारमहण्णवे बुड्डं।(703)
यह जो मर गया, मेरा स्वामी है ऐसा मानता हुआ अन्य जीव अन्यका शोक करता है किन्तु संसार-रूपी महासमुद्र में डूबे हुए अपने आत्मा का शोक नहीं करता है।
अण्णं इमं सरीरादिगं पि जं होज्ज बाहिरं दव्वं । . णाणं दंसणमादात्ति एवं चिंतेहि अण्णत्तं ॥(704) .
यह शरीर आदि भी अन्य हैं पुन: जो बाह्य द्रव्य हैं वे तो अन्य हैं ही। आत्मा ज्ञानदर्शन स्वरूप है इस तरह अन्यत्व का चिन्तन करों।
(6) अशुचि अनुप्रेक्षा- यह शरीर अत्यन्त अशुचि पदार्थों की योनि है। शुक्र और शोणितरूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भोजन है। त्वचामात्र से आच्छादित है। अति दुर्गन्ध रसको बहाने वाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हए पदार्थ को भी शीघ्र ही नष्ट करता है। स्नान, अनुलेपन, घूपकी मालिश
और सुगन्धिमाला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है। किन्तु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदिक जीवकी आत्यान्तिक शुद्धि को प्रकट करते हैं। इस प्रकार वास्तविक रूप से चिन्तन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है। इस प्रकार चिन्तन करने वाले इसके शरीर से निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर जन्मोदधिको तरने के लिए चित्तको लगाता है।
णिरिएसु असुहमेयंतमेव तिरियेसु बंधरोहादी। मणुएसु रोगसोगादियं तु दिवि माणसं असुहं ।(722)
(मू.पृ. 17) नरकों में एकान्त से अशुभ ही है। तिर्यंचों में बन्धन और रोदन आदि, मनुष्यों में रोग शोक आदि और स्वर्ग में मन सम्बन्धी अशुभ है।
आयासदुक्खवेरभय सोगकलिरागदोसमोहाणं। असुहाणमावहो वि य अत्थो मूलं अणत्थाणं॥(723)
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