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वेदनीय के सिवाय बाकी सब मूल प्रकृतियों के द्रव्य का स्थिति के अनुसार बँटवारा होता है। जिसकी स्थिति अधिक है उसका अधिक, कम कोकम, तथा समान स्थिति वाले को समान द्रव्य हिस्सा में आता है, ऐसा जानना । और इनके बाँट करने में प्रतिभागहार नियम से आवलि के असंख्यातवें
भाग प्रमाण समझना ।
पंचास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द देव नें उपरोक्त सिद्धान्त को ही निम्न प्रकार से प्रतिपादित किया है:
ओगाढगाढणिचिदो पोग्गलकायेहिं सव्वदो बादरेहिं य ताणंतेहिं
सुमेहिं
जैसे यह लोक पृथ्वीकाय आदि पांच प्रकार के सूक्ष्म स्थावर जीवों सेकज्जल से पूर्ण भरी हुई कज्जलदानी की तरह बिना अन्तर के भरा हुआ है उसी तरह यह लोक अपने सर्व असंख्यात प्रदेशों में दृष्टिगोचर व अदृष्टिगोचर नाना प्रकार के अनंतानंत पुद्गल स्कंधों से भी भरा है। यहां प्रकरण में जो कर्म वर्गणा योग्य पुद्गल स्कंध हैं वे वहां भी मौजूद हैं जहां आत्मा हैं। वे वहां विना अन्यत्र से लाए हुए मौजूद हैं। पीछे बंधकाल में और भी वर्गणाएं आवेंगी। यहां यह तात्पर्य है कि यद्यपि वे वर्गणाएं जहां आत्मा है वहां दूध-पानी की तरह कूट-कूटकर भरी हुई हैं ।
अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं । गच्छंति कम्मभावं अण्णोण्णावगाहमवगाढ़ा ||65||
आत्मा वास्तव में संसार अवस्था में पारिणामिक चैतन्य स्वभाव को छोडे बिना ही अनादि बंधन द्वारा बद्ध होने से अनादि मोहरागद्वेष द्वारा स्निग्ध ऐसे, अविशुद्ध भावों रूप से ही विवर्तन को प्राप्त होता है ( परिणमित होता है ) । वह (संसारस्थ आत्मा) वास्तव में जहां और जब मोहरूप, रागरूप या द्वेषरूप ऐसे अपने भाव को करता है, वहां और उस समय उसी भाव को निमित्त बनाकर पुद्गल अपने भावों से ही जीव के प्रदेशों में (विशिष्टता पूर्वक) परस्पर- अवगाहरूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं।
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लोगो । विविधेहिं ॥64||
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