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2. दर्शनावरणीय
सामान्य सत्ता अवलोकन अन्त: चेतना रूपी प्रकाश को आवरण करने वाला दर्शनावरणीय कर्म है। जैसे- द्वारपाल, राजा, मन्त्री आदि मालिक को देखने नहीं देता है अर्थात् देखने के लिए रोक देता है। उसी प्रकार यह कर्म वस्तु का सामान्य अवलोकन रूप दर्शन नहीं होने देता है।
3. वेदनीय अक्खाणं अणुभवणं वेयाणियं सुहसरूवयं सादं। दुक्खसरूवमसादं तं वेदयदीदि वेदणियं ।। (14)
(गो. कर्मकाण्ड) इन्द्रियों का अपने- अपने रूपादि विषय का अनुभव करना वेदनीय है। उसमें दुःख रूप अनुभव करना साता वेदनीय है। उस सुख-दुख का अनुभव जो करावे वह वेदनीय कर्म है।
जो कर्म वेदन किया जाता है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इस अपेक्षा सभी कर्म वेदन किए जाते है इसीलिए सभी कर्म वेदनीय होने पर भी विशेष रूप से संसारी जीव सुख-दुःख का अधिक रूप से वेदन करता है इसलिए सुख-दुःख को देने वाले कर्म को 'वेदनीय कर्म' कहते हैं। दूसरी बात यह है कि, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म के भेद जो रागद्वेष हैं उनके उदय के बल से ही घातियाँ कर्मों की तरह जीवों का घात करता है। अर्थात् इन्द्रियों के रूपादि विषयों में से किसी में रति (प्रीति) और किसी में अरति (द्वेष) का निमित्त पाकर सुख तथा दुःख स्वरूप साता और असाता का अनुभव करके जीव को अपने ज्ञानादि गुणों में उपयोग नहीं करने देता, परस्वरूप में लीन करता है।
4. मोहनीय कर्म
जो जीव को मोहित करे वह 'मोहनीय कर्म' है। इस दृष्टि से मोहनीय कर्म सामान्य से एक होते हुए भी विशेष अवस्था में इसके दो भेद हैं। जो दर्शन गुण को मोहित करके विपरीत करे वह दर्शन मोहनीय है। जो चारित्र
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