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________________ सामान्य दृष्टि से यह बन्ध एक होते हुए भी विशेष दृष्टि से इसके अनेक भेद-प्रभेद हो जाते हैं। द्रव्यबन्ध, भावबन्ध के भेद से दो भेद, कर्मबन्ध, नोकर्म-बन्ध, भावबन्ध के भेद से तीन प्रकार के हैं- (1) प्रकृतिबंध (2) स्थितिबन्ध (3) अनुभव (अनुभाग) प्रदेशबन्ध के भेद से बन्ध चार प्रकार के हैं। ज्ञानावरणादि आठ कर्म के भेद से बन्ध आठ प्रकार के भी हैं। 148 (एक सौ अड़तालीस) भेद रूप कर्म की अपेक्षा बन्ध 148 प्रकार के भी हैं। परन्तु मुख्यत: प्रकृति आदि 4 प्रकार के बन्ध भेदों का वर्णन यहाँ पर किया हैं। 1. प्रकृति बन्ध :- प्रकृति और स्वभाव ये एकार्थवाची शब्द हैं,। जैसे-नीम की प्रकृति क्या है? नीम का स्वभाव तिक्तता है, गुड़ का स्वभाव या प्रकृति मधुर है। अर्थात् नीम की प्रकृति कडुआपन है और गुड़ की प्रकृति मधुरता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय की प्रकृति अथवा स्वभाव है अर्थज्ञान नहीं होने देना, अत: प्रकृति और स्वभाव एकार्थवाची हैं। इसी प्रकार दर्शनावरणीय की प्रकृति (स्वभाव) है अर्थ पदार्थ का दर्शन नहीं करने देना, वेदनीय का स्वभाव है सुख दुःख का संवेदन कराना, दर्शन मोहनीय की प्रकृति है तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं होने देना, चारित्र मोहनीय की प्रकृति है असंयम परिणाम, आयु का स्वभाव भव-धारण करना, नामकर्म की प्रकृति है नारक, तिर्यञ्च आदि नाम व्यवहार करना, गोत्र का स्वभाव है ऊँच-नीच का व्यवहार करना तथा अन्तराय कर्म का स्वभाव है दानादि में विध्न करना। इस प्रकार के कार्य जिससे उत्पन्न होते हैं, जिससे किये जाते हैं, वह प्रकृति बन्ध हैं और उपादान साधन से निष्पन्न यह प्रकृति शब्द है। 2. स्थिति बन्ध - उस स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थिति है। अर्थात् उस स्वभाव की अप्रच्युति स्थिति कहलाती है। जैसे-बकरी, गाय, भैंसादि के दूध • का माधुर्य स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थिति है। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि कर्मप्रकृति का अपने अर्थानवगम (अर्थों का ज्ञान नहीं होने देना) वेदना आदि स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थिति है। 3. अनुभाग बन्ध - कर्मों के रसविशेष (फलदान शक्ति-विशेष) को अनुभाग बन्ध कहते हैं। जैसे-बकरी, गाय और भैंस आदि के दूध में तीव्र-मन्द आदि भाव से रसविशेष होता है। अर्थात् दूध सामान्य होते हुए भी उनमें स्निग्धता, मधुरता आदि में विशेषता होती है, उसी प्रकार कर्मपुद्गलों की स्वकीय फलदान 475 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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