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________________ को प्रीतिपूर्वक सेवन करना, धारण करना। इसको सेवन करने वाली गृहस्थ श्रावक होता है। _ 'जोषिता' शब्द से यहाँ प्रीति पूर्वक सेवन करना अर्थ विवक्षित है, अन्तरंग प्रीति के बिना जबरदस्ती सल्लेखना नहीं कराई जाती, जब आत्मा सल्लेखना करने में अपना परमहित समझता है, तभी स्वयं प्रेमपूर्वक उसे धारण करता है। सल्लेखना से आत्म हत्या नहीं- प्रमाद के योग से प्राण व्यपरोपण को हिंसा कहते हैं। परन्तु सल्लेखना मरण को आत्मवध नहीं कह सकते। रागादि का अभाव होने से प्रमाद नहीं है। क्योंकि राग द्वेष और मोह आदि से कलुषित व्यक्ति जब विष, शास्त्र आदि से अभिप्राय पूर्वक अपना घात करता है तब आत्मवध का दोष लगता है, परन्तु सल्लेखना धारी के रागद्वेषादि कलुषताएँ नहीं है अत: उसके आत्मवध के दोष का स्पर्श नहीं है। अर्थात् समाधिमरण करने वाला आत्मवध के दोष का भागी नहीं है कहा भी है रागादीमणुप्पा अहिंसकेत्ति देसिदं समये। . तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेत्ति जिणेहि णिद्दिठ्ठा॥9॥ रागादि की उत्पत्ति नहीं होने को अहिंसा और रागद्वेष की उत्पत्ति को जिनेन्द्र भगवान ने हिंसा कहा है। अथवा मरण तो अनिष्ट होता है। जैसे अनेक प्रकार के पण्य (सोना, चांदी, वस्त्र आदि वस्तुओं) के लेन, देन, संचय आदि के करने में तत्पर किसी भी दुकानदार को उन उपयोगी वस्तुओं के आधारभूत घर का विनाश इष्ट नहीं है और व घर के विनाश के कारणों के उपस्थित होने पर यथाशक्ति वह उन कारणों को दूर करता है, यदि उनका परिहार करना दुःशक्य होता है तो वह उस घर में रखी सोना चाँदी आदि पण्य वस्तुओं की रक्षा करने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार व्रत, शील आदि के द्वारा पुण्य के संचय में प्रवर्तमान गृहस्थ भी व्रत आदि के आश्रयभूत शरीर का कभी विनाश नहीं चाहता, शरीर के नाश के कारणों के उपस्थित होने पर अपने गुणों के अविरोध से यथाशक्ति 441 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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