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(B) तिर्यग्वाणिज्य- 'गाय-भैंस आदि पशुओं को इस देश से
ले जाकर अन्य देश में बेचने पर बहुत धन लाभ होगा' इत्यादि
पशुओ के व्यापार का मार्ग बताना तिर्यग्वाणिज्य है। (C) वधकोपदेश- वागुरिक (शिकारी), सौकरिक (वधिक),
शाकुनिक (पक्षियों को पकड़ने वाले) आदि व्यक्तियों को 'हिरण, सुअर, पक्षी आदि प्राणी इस देश में क्षेत्र-पर्वत आदि पर बहुत रहते हैं' इत्यादि वचनों के द्वारा शिकार के योग्य प्राणियों का स्थान आदि बताना वधकोपदेश है। आरम्भोपदेश- आरम्भ कार्य करने वाले किसान आदि को भूमि, नीर, अग्नि, पवन और वनस्पति आदि के आरम्भ, छेदन-भेदन आदि के उपाय आरम्भोपदेश है। इस प्रकार और भी पाप संयुक्त वचन या पापवर्धक वचन हैं, वे सब पापोपदेश
(D)
III. प्रमादचर्या- प्रयोजन बिना वृक्षादि का छेदना, भूमि को कूटना,
पानी सींचना आदि सावध कर्म प्रमादचर्या है। IV. हिंसा प्रदान दोष- विष, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, कशा (कोड़) और
दण्ड (डण्डा, लाठी) आदि हिंसा के उपकरणों को देना हिंसा-प्रदान
दोष है।
v. अशुभ श्रुति- हिंसा, राग, काम आदि की वृद्धि करने वाली दुष्ट
कथाओं का सुनना और दूसरों को सिखाना आदि व्यापार अशुभ
श्रुति हैं।
मध्य में अनर्थदण्ड का ग्रहण पूर्वोत्तर अतिरेक के आनर्थक्य के ज्ञापनार्थ है। पूर्व में कहे गये दिग्वत और देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोगपरिभोग परिमाणव्रत में अवधृत मर्यादा में भी निष्प्रयोजन गमन आदि तथा मर्यादित विषयों का भी सेवन आदि नहीं करना चाहिए। इस प्रकार अतिरेक निवृति की सूचना देने के लिए मध्य में अनर्थदण्ड वचन को ग्रहण किया है।
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