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________________ बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह वाले का भाव नरकायु का आस्रव है। प्राणियों को दुख पहुँचाने वाली प्रवृत्ति करना आरम्भ है। यह वस्तु मेरी है इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। जिसके बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह हो वह बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह वाला कहलाता है और उसका भाव बह्वारम्भ परिग्रहत्व है। हिंसा आदि क्रूर कार्यों में निरन्तर प्रवृत्ति, दूसरे के धन का अपहरण, इन्द्रियों के विषयों में अत्यन्त आसक्ति तथा मरने के समय कृष्ण लेश्या और रौद्रध्यान आदि का होना नरकायु के आस्रव हैं। तत्त्वार्थसार में कहा भी है उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोषता। मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकम्पता॥(30) अज्रसं जीवघातित्वं सततानृतवादिता।' परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥(31) कामभोगाभिलाषाणां नित्यं चातिप्रवृद्धता। जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च. भेदनम् ॥(32) मार्जारताम्रचूडादिपापीय:प्राणिपोषणम्। नैःशील्यं च महारम्भपरिग्रहतया सह॥(33) कृष्णलेश्यापरिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम्। आयुषो नारकस्येति भवन्त्यासवहेतवः ॥(34) तीव्र मान करना, पाषाणरेखा के समान तीव्र क्रोध करना, मिथ्यात्व धारण करना, तीव्र लोभ करना, निरन्तर निर्दयता के भाव रखना, सदा जीवघात करना, निरन्तर झूठ बोलना, सदा परधनहरण करना, निरन्तर मैथुन सेवन करना, हमेशा काम भोग सम्बन्धी अभिलाषाओं को अत्यधिक बढ़ाना, जिनेन्द्र भगवान् में दोष लगाना, जिनागम का खण्डन करना, विलाव, मुर्गा आदि पापी जीवों का पोषण करना, शील रहित होना, बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह रखना, कृष्णलेश्यारूप परिणति करना तथा चार प्रकार का (हिंसानन्द, मृषानन्द, स्तेयानन्द, परिग्रहानन्द) रौद्रध्यान करना ये सब नरकायु के आसव के हेतु हैं। 382 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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