________________
रूप क्रिया होता है वह मिथ्यात्व क्रिया है। (3) प्रयोग - शरीर आदि द्वारा गमनागमन आदिरूप प्रवृति प्रयोगक्रिया है। . (4) समादान - संयत का अविरतिके सम्मुख होना समादान क्रिया है। . (5) ईर्यापथ - ईर्यापथ की कारणभूत क्रिया ईर्यापथ क्रिया है। (6) प्रादोषिकी - क्रोध के आवेश से प्रादोषिकी क्रिया होती है। (7) कायिकी - दुष्ट भाव युक्त होकर उद्यम करना कायिकी क्रिया है। (8) आधिकारणिकी - हिंसा के साधनों को ग्रहण करना आधिकरणिकी क्रिया है। (७) पारितापिकी - जो दुःख की उत्पत्ति का कारण है वह पारितापिकी क्रिया
है।
(10) प्राणातिपातिकी - आयु, इन्द्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास रूप प्राणों का वियोग करने वाली प्राणातिपातिकी क्रिया है। (11) दर्शन - रागवश प्रमादी का रमणीय रूप के देखने का अभिप्राय दर्शन-क्रिया
(12) स्पर्शन - प्रमादवश स्पर्श करने लायक सचेतन पदार्थ का अनुबन्ध स्पर्शनक्रिया है। (13) प्रात्ययिकी- नये अधिकरणों को उत्पन्न करना प्रात्ययिकी क्रिया है। (14) समन्तानुपात - स्त्री, पुरूष और पशुओं के जाने, आने, उठने और बैठने के स्थान में मल का त्याग करना समन्तानुपात क्रिया है। (15) अनाभोग - प्रमार्जन और अवलोकन नहीं की गयी भूमिपर शरीर आति का रखना अनाभोग क्रिया है। (16) स्वहस्त - जो क्रिया दूसरों द्वारा करने की हो उसे स्वयं कर लेना स्वहस क्रिया है। (17) निसर्ग - पापादान आदिरूप प्रवृत्ति विशेष के लिए सम्मत्ति देना निस
362
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org