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है यह बतलाने के लिए ही वे हर तरह की पुस्तकें पढते व लिखते हैं, प्रवचन करते हैं, शिविर आदि लेते हैं।
अब ये हमारे भाग्य या पुरुषार्थ की बात हैं कि हम इन कनकनंदी रूपी ज्ञान के सागर से अपनी गागर कितनी भर सकते हैं।
जिनवाणी की अविनय जिनको कभी न भाती। आगम विरुद्ध जिनको बातें कभी न सुहाती॥ जन जन को जिनकी वाणी सन्मार्ग दिखाती। गुरू कनकनंदी के चरणों में क्षमा नित शीश झुकाती॥
"गुरूभक्ता" "आर्यिका क्षमा श्री"
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वर्तमान का पुरुषार्थ भविष्य के लिए भाग्य बन जाता है इसलिए भाग्य और पुरुषार्थ परस्पर में जन्य-जनकत्व, अनुपूरक-परिपूरक
है।
मानसिक अहिंसा-मनोभाव को सम्पूर्ण दुराग्रह, हठाग्रह से रहित होकर सत्यान्वेषी, सत्यग्राही, व्यापक दृष्टिकोण को अपनाते हुए वस्तु के विभिन्न गुण, धर्म को विभिन्न पहलुओं से अनेकान्त दृष्टि से स्वीकार करना मानसिक अहिंसा है।
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