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________________ देव, नारकी के शरीर। लब्धिप्रत्ययं च। (47) And (fluid body can also be attained by other) cause i.e. by a लब्धि attainment due to special austerities. तथा लब्धि से भी पैदा होता है। वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्य है। उपपाद जन्म से साथ-साथ ऋद्धि निमित्तक भी होता है। तपश्चरण विशेष से जो ऋद्धियां प्राप्त होती हैं वे लब्धि हैं। लब्धि प्रत्यय जिसके है वह लब्धि प्रत्यय कहलाता है। लब्धि और उपपाद में निश्चय और कादाचित्कृत विशेषता है। जन्म निमित्त होने से उपपाद निश्चय से होता है और लब्धि तो कादाचित्की होती है। लब्धि प्रत्यय वैक्रियिक शरीर तपोविशेष की अपेक्षा से उत्तर काल में होता है। विविधकरण विक्रिया अर्थात् शरीर की नाना आकृतियाँ उत्पन्न करना विक्रिया है। वह विक्रिया दो प्रकार की है- (1) एकत्व विक्रिया, (2) पृथक्त्व विक्रिया। अपने शरीर से अपृथक् भाव से सिंह, व्याघ्र, हंस, कुत्ता आदि की रचना करना एकत्व विक्रिया है। अपने शरीर से भिन्न प्रासाद, मण्डप आदि की रचना करना पृथक्त्व विक्रिया है। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी (16वें स्वंग तक) देवों के दोनों प्रकार की विक्रिया होती है। ऊपर ग्रैवेयक देवों से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों के प्रशस्त एकत्व विक्रिया ही होती है। छठे नरक तक के नारकियों के त्रिशुल, चक्र, तलवार, मुद्गर, परशुभिण्डवाल आदि अनेक आयुध रूप एकत्व विक्रिया होती है। नारकियों में पृथक्त्व विक्रिया नहीं है। सातवें नरक में गाय बराबर कीड़े, लोहित, कुन्थु आदि रूप से एकत्व विक्रिया ही होती है। सातवें नरक में अनेक आयुध रूप से एकत्व विक्रिया नहीं है और न पृथक्त्व विक्रिया है। तिर्यंचों में मयूर आदि के कुमारादि भाव प्रति विशिष्ट एकत्व विक्रिया होती है, तिर्यंचों में भी पृथक्त्व विक्रिया नहीं है। तप एवं विद्या आदि के प्राधान्य से मनुष्यों के प्रतिविशिष्ट एकत्व विक्रिया और पृथक्त्व विक्रिया होती है। 172 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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