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________________ (3) आहारक आहारस्सुदयेण य, पमत्तनि स होदि आहारं। . असंजमपरिहरणळं, .सं हविणासणठें च॥ (235) असंयम परिहार करने के लिए तथा संदेह को दूर करने के लिये आहारक कृद्धि के धारक छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के आहारक शरीर नामकर्म के उदय से आहारक शरीर होता है यह शरीर औदारिक अथवा वैक्रियिक शरीर की तरह जीवन भर नही रहा करता, किन्तु जिनको आहारक ऋद्धि प्राप्त है ऐसे प्रमत्त मुनि अपने प्रयोजन वश उनको उत्पन्न किया करते हैं। इसके लिए मुनियों के मुख्यतया दो प्रयोजन बताये गये हैं- असंयम का परिहार और संदेह का निवारण। ढाई द्वीप में पाये जाने वाले तीर्थों आदि की वन्दना के लिए जाने में जो असंयम हो सकता है वह न हो इसलिये। अर्थात् बिना असंयम के भी तीर्थ क्षेत्रों आदि के वन्दना कर्म की सिद्धि। इसी तरह कदाचित् श्रुत के किसी अर्थ के विषय में ऐसा कोई संदेह हो जो कि ध्यानादि के लिये बाधक हो और उसकी निवृत्ति केवली, श्रुतकेवली के बिना हो नहीं सकती हो तो उस सन्देह को दूर करने के लिये भी आहारक शरीर का निर्माण हुआ करता है। किन्तु यह शरीर आहारक शरीर नामकर्म के उदय के बिना नहीं हुआ करता तथा मुनियों के ही होता है और उनके भी अप्रमत्त अवस्था में न होकर प्रमत्त अवस्था में ही उत्पन्न हुआ करता है। अप्रमत्त या असंयम अवस्था में कदापि नहीं होता है। आहारक शरीर किस अवस्था में और किन-किन प्रयोजनों से मुनियों के उत्पन्न हुआ करता है इस बात को आचार्य स्पष्ट करते हैं: णियखेत्ते केवलिदुगविरहे णिक्कमणपहुदिकल्लाणे। परखेत्ते संवित्ते, जिण जिणघरवंदणटुं च॥ (236) . अपने क्षेत्र में केवली तथा श्रुतकेवली का अभाव होने पर किन्तु दूसरे क्षेत्र में जहाँ पर कि औदरिक शरीर से उस समय पहुँचा नहीं जा सकता केवली या श्रुतकेवली के विद्यमाने रहने पर अथवा तीर्थंकरों के दीक्षा कल्याण आदि तीन कल्याणकों में से किसी के होने पर तथा जिन, जिनगृह चैत्य, चैत्यालयों 163 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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