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________________ संज्ञीमार्गणागत जीवों की संख्या : देवों के प्रमाण से कुछ अधिक संज्ञी जीवों का प्रमाण है । सम्पूर्ण संसारी व राशि में से संज्ञी जीवों का प्रमाण घटाने पर जो शेष रहे उतना हो समस्त असंज्ञी जीवों का प्रमाण है । [ गोम्मट्टसार, पृ. 245] देवहि सदिरेगो रासी सण्णीण होदि परिमाणं । तेणूणो संसारी सव्वेसिमसण्णिजीवाणं ॥ विग्रह गति में गमन का कारण विग्रहगतौ कर्मयोग : 1 ( 25 ) . faufa Transmigration (i.e. the passage of the Soul from one incarnation to another there is only) body Vibration by which the electric and molecules are attracted by the Soul. विग्रहगति में कर्मयोग होता है। 'विग्रह' का अर्थ देह है। 'विग्रह' अर्थात् शरीर के लिए जो गति होती. है वह विग्रह गति है । अथवा विरूद्ध ग्रह को विग्रह कहते हैं जिसका अर्थ व्याघात है। तात्पर्य यह है कि, जिस अवस्था में कर्म के ग्रहण होने पर भी नोकर्मरूप पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता वह 'विग्रह' है और इस विग्रह के साथ होने वाली गति का नाम विग्रहगति है । सब शरीरों की उत्पत्ति के मूलकारणरूप कार्मण शरीर को 'कर्म' कहते हैं। तथा वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा निमित्त से होने वाले आत्मप्रदेशों के हलनचलन को 'योग' कहते हैं । कर्म निमित्त से जो योग होता है वह कर्मयोग है। वह विग्रहगति में होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इससे नूतन कर्म का ग्रहण और एक देश से दूसरे देश में गमन होता है। 150 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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