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का वर्णन नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने निम्न प्रकार से किया है:
एइंदियस्स फुसणं एक्कं वि य होदि सेसजीवाणं। · हॉति कमउड्डियाइं जिन्भाघाणच्छिसोत्ताइं॥ (167)
एकेन्द्रिय जीव के एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। शेष जीवों के क्रम से जिव्हा घ्राण चक्षु और श्रोत बढ़ जाते हैं। एकेन्द्रिय जीव के केवल स्पर्शनेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय के स्पर्शन, रसना (जिव्हा) त्रीन्द्रियके स्पर्शन, रसना, घ्राण (नासिका) चतुरिन्द्रियके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, और पंचेन्द्रिय के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र होते हैं।
___ स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ कितनी दूर तक रक्खे हुए अपने विषय का ज्ञान कर सकती हैं यह बताने के लिये इन्द्रियों का विषयक्षेत्र बताते हैं
धणुवीसडदसयकदी जोयणछादालहीणतिसहस्सा।
अट्ठसहस्स धणूणं विसया दुगुणा असण्णि ति॥ (168) स्पर्शन, रसना, प्राण इनका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र क्रमसे चारसौ धनुष, चौसठ धनुष, सौ धनुष प्रमाण है। चक्षुका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र दो हजार नवसौ योजन है। और श्रोतेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र आठ हजार धनुष प्रमाण है। और आगे असंक्षिपर्यन्त दूना विषय बढ़ता गया है। संज्ञी जीवकी इन्द्रियों का विषयक्षेत्र
सण्णिस्स वार सोदे, तिण्हंणव जोयणाणि चक्खस्स। सत्तेतालसहस्सा
बेसदतेसट्टिमदिरेया॥(169) ___ संज्ञी जीव के स्पर्शन, रसना, घ्राण इन तीन में प्रत्येक विषय क्षेत्र नव-2 योजन है। और श्रोत्रेन्द्रियका बारह योजन, तथा चक्षुका सेंतालीस हजार दोसौ वेसठसे कुछ अधिक विषयक्षेत्र है।
_इन्द्रियों का आकार चक्खू सोदं घाणं जिन्भायारं मसूरजवणाली।
अतिमुत्तखुरप्पसमं फासं तु अणेयसंठाणं॥ (171) मसूर के समान चक्षुका जवकी नलीके समान श्रोत्रका तिलके फूल के
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