SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो स्वतंत्र रूप से काम करता हो उसे इन्द्र कहते हैं। स्पर्शादि स्वतंत्र रूप से काम करते हैं इसलिए इन्हें 'इन्द्रिय' कहते हैं। अथवा संसारी जीव के चिन्ह विशेष को इन्द्रिय कहते हैं। या संसारी जीव जिस उपकरण के माध्यम से बाह्य वस्तु को जानता है उसे भी इन्द्रिय कहते हैं। वीर्यान्तराय और मतिज्ञान कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नाम कर्म के आलम्बन से आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है वह स्पर्शन इन्द्रिय है, जिसके द्वारा स्वाद लेता है वह रसना इन्द्रिय है, जिसके द्वारा सूंघता है वह घ्राण इन्द्रिय है। उनमें से यहाँ दर्शन रूप अर्थ लिया गया है इसलिए जिसके द्वारा पदार्थों को देखता है वह चक्षु इन्द्रिय है तथा जिसके द्वारा सुनता है वह श्रोत इन्द्रिय है। इसी प्रकार इन इन्द्रियों की विवक्षा भी देखी जाती है। जैसे यह मेरी आँख अच्छी तरह देखती है, यह मेरा कान अच्छी तरह सुनता है। और इसलिये इन स्पर्शन आदि स्पर्शन इन्द्रिय है। जो स्वाद लेती है वह रसना इन्द्रिय है, जो सूंघती है वह घ्राण इन्द्रिय है, जो देखती है वह चक्षु इन्द्रिय है। इन्द्रियों का जो स्पर्शन के बाद रसना और उसके बाद घ्राण इत्यादि क्रम से निर्देश किया है वह एक-2 इन्द्रिय की इस क्रम से वृद्धि होती है यह दिखलाने के लिए किया है। .. पूर्व में भावेन्द्रियों के स्वरूप, विषय क्रम, वृद्धि, विषय क्षेत्र का वर्णन हो चुका है। किन्तु द्रव्येन्द्रियों का वर्णन बाकी है। अतएव अब उसी का स्वरूप बताने की दृष्टि से यहाँ इन्द्रियों की बाह्य निवृत्ति का स्वरूप बताते हैं। अपने-2 स्थान पर जो कर्म रूप पुद्गलवर्गणाओं का जो आकार बनता है उसी को बाह्य निवृत्ति कहते हैं। चक्षु श्रोत घ्राण और जिह्वा इन चार इन्द्रियों का आकार नियत है, परन्तु स्पर्शन इन्द्रिय का आकार नियत नहीं है। क्योंकि वह सम्पूर्ण शरीर के साथ व्याप्त है और शरीरों के आकार विभिन्न प्रकार के हुआ करते हैं। तत्तत् इन्द्रिय के स्थान पर अपने-2 आवरण कर्म के क्षयोपशम रूप कार्माण पुद्गलस्कन्ध से युक्त आत्मा के प्रदेशों का जो आकार बनता है। उसको आभ्यन्तर निवृत्ति कहते हैं। स्पर्शनेन्द्रिय की यह आभ्यन्तर निवृत्ति भी भिन्न-2 प्रकार की हुआ करती हैं। 141 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy