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________________ दो प्रकार का है और ये पूर्वोक्त सातों पर्याप्त तथा अपर्याप्त हैं, ऐसे 14 जीव समास हैं। मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। . विण्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया॥ (13) संसारी जीव अशुद्ध नय से चौदह मार्गणा स्थानों से तथा चौदह गुणस्थानों से चौदह-चौदह प्रकार के होते हैं, और शुद्धनय से तो सब संसारी जीव शुद्ध ही हैं। स्थावरों के भेद पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतयः स्थावराः। (13) Immobile (one sensed souls)(are of 5 kinds). (1) gesit Earth bodied; (2) 319 Water bodied; (3) तेज Fire bodied; (4) वायु Air bodied; and (5) Vegetable - bodied. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच स्थावर हैं। आधुनिक विज्ञान में केवल वनस्पति को ही जीव सिद्ध किया है परन्तु पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक को जीव सिद्ध करने में असमर्थ है, क्योंकि इन जीवों का आकार अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण एवम् उसके सूक्ष्म शरीर में होने वाली सूक्ष्म क्रियाओं के कारण वैज्ञानिक लोग इन्हें जीव सिद्ध करने में सक्षम नहीं हो पाये हैं। परन्तु जैन धर्म केवली भगवान द्वारा प्रतिपादित होने के कारण इसमें सूक्ष्म परमाणु से लेकर आकाश तक सम्पूर्ण द्रव्यों का एकेन्द्रिय से लेकर सिद्ध तक के जीवों का वर्णन है। इन पंच स्थावर के विशेष शोध-बोध के लिए एवम् आधुनिक शोध-बोध विद्यार्थियों के मार्ग दर्शन के लिए इस का विशेष वर्णन यहां कर रहा हूँ: 130 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004251
Book TitleSwatantrata ke Sutra Mokshshastra Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanaknandi Acharya
PublisherDharmdarshan Vigyan Shodh Prakashan
Publication Year1992
Total Pages674
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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