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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु *७१*
सहजभाव से प्राप्त पुण्य के अवसर को यानी सातावेदनीय, उच्चगोत्र, शुभ नामकर्म तथा शुभायुष्य के वन्ध को भी नहीं चूकता। अघातिकर्म के आस्रव और बन्ध के कारणों से भी यथाशक्ति बचता है।
जीवन में शुद्ध धर्म की पहचान के लिए तीन लक्षण
आठों ही कर्मों के स्वभाव, कार्य और उनके क्षय का उपाय संक्षेप में बताकर अन्त में, कर्मविज्ञान ने जीवन में शुद्ध धर्म की पहचान के लिए तीन लक्षण बताये हैं
(१) जीवन में तीव्र राग-द्वेषरहित या तीव्र कषायरहित अहिंसा का यथाशक्ति पालन,
(२) संयम अर्थात् पंचेन्द्रियों और मन पर तथा कषायों पर नियंत्रण, समभाव में रहना, तथा (३) तप अर्थात् कष्टों को समभाव से व शमभाव से सहने की क्षमता, तितिक्षा ।
संवर और निर्जरा किनमें और किनमें नहीं ?
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इस जगत् में दो प्रकार की वृत्ति वाले मनुष्य पाये जाते हैं - श्वानवृत्ति वाले और सिंहवृत्ति वाले | श्वान पत्थर में फेंकने वाले को नहीं, माध्यमरूप पत्थर को पकड़ता है, इसी प्रकार अशुभ कर्मों के उदय के फलस्वरूप संकट या कष्ट आने पर श्वानवृत्ति वाले व्यक्ति निमित्तों को पकड़ते हैं, अपने उपादान को नहीं । फलतः कर्मों के संवर या सकामनिर्जरा के अवसर को चूककर नये कर्म और बाँध लेते हैं, जबकि सिंहवृत्ति वाले व्यक्ति निमित्तों को कोई दोष न देकर अपने उपादान को पकड़ते हैं। वे अशुभ कर्मोदयवश संकट या कप्ट आने पर सोचते हैं- मेरे ही किसी पूर्वकृत अशुभ कर्म का फल है, मैंने ही अज्ञानतावश कर्म बाँधा है, अतः मुझे ही इन कर्मों को वीरतापूर्वक समभाव से भोगकर क्षय करना है। आगे सिंहवृत्ति और श्वानवृति तुल्य मानवों की वृत्ति प्रवृत्ति का और कर्म-सरकार की नीति का विविध युक्तियों और दृष्टान्तों द्वारा प्रतिपादन किया गया है। निमित्तों के प्रति प्रतिक्रिया करने वाला व्यक्ति स्वतः दुःखी होता है. कदाचित् आर्त्त-रौद्रध्यानवश घोर कर्मबन्ध भी कर लेता है। कभी-कभी दुर्भावना, दुश्चेष्टा या दुर्वचन के रूप में प्रतिक्रिया करने वाले व्यक्ति के प्रति सामने से वापस प्रतिक्रिया होती है। उससे वैर-परम्परा बँध जाती है। इसके विपरीत यह सोचें कि यह निमित्त तो कर्मसत्ता के आदेश का पालन करने वाला है। अगर ऐसा विचार करके अर्जुन मुनि की तरह तथा सीता वनवास के समय महासती सीता की तरह सिंहवृत्तिमूलक चिन्तन हो तो प्रतिक्रियाविरति होने से संवर का और समभावपूर्वक कष्ट भोगने से निर्जरा का अनायास लाभ मिल सकता है। अग्निशर्मा के जीव द्वारा हिंसक प्रतिकार करने पर भी जैसे गुणसेन के जीव ने सिंहवृत्तिपूर्वक समभाव से सहन किया तो वह केवलज्ञान प्राप्त करके सर्वकर्ममुक्त परमात्मा वन गया। अतः सिंहवृत्ति धारण करके प्रतिक्रियाविरति और समभावपूर्वक कष्ट सहन करने से संबर और निर्जरा दोनों का अनायास ही लाभ मिल जाता है।
समस्या के स्रोत आनव और समाधान के स्रोत संवर
संसारी जीव के जीवन में विविध क्षेत्रों की अगणित समस्याएँ पैदा होती हैं। परन्तु जो व्यक्ति समस्याओं के स्रोत को जानकर उनके समाधान के स्रोत को अपना लेता है, वह समस्याओं में उलझकर आर्त-रौद्रध्यानवश अशुभ कर्मबन्ध नहीं करता तथा पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों को भी उदय में आने से पहले संबर- निर्जरा के उपायों को अपनाकर क्षय कर डालता है, तथैव समस्याओं के स्रोतरूप कर्मों के आम्रव और उनके कारणों पर भी ब्रेक लगा देता है। कर्मविज्ञान की दृष्टि समस्याओं की जननी पाँच हैं(१) मिथ्यादृष्टि, (२) अविरति, (३) प्रमादग्रस्तता, (४) कषायवशता, और (५) योगों की चंचलता। आगे बताया गया है कि इन पाँचों के क्या-क्या स्वरूप हैं? कितने-कितने प्रकार हैं? तथा ये किस-किस प्रकार की समस्याएँ पैदा करते हैं? साथ ही इनके विपरीत समाधान के स्रोत भी पाँच हैं - ( १ ) सम्यग्दृष्टि, (२) विरति, (३) अप्रमाद, (४) अकपाय, और (५) योगत्रय की चंचलता का अभाव। इसके पश्चात् कर्मविज्ञान ने यह भी स्पष्टतः बताया है-इन पाँचों संवरों से किन-किन समस्याओं का कैसे-कैसे समाधान होता है ? आनव के स्थान या कारण को संवर में परिणत करने की कुंजी भी कर्मविज्ञान ने बताई है। मूल में तो प्रत्येक प्रवृत्ति, व्यक्ति या घटना के साथ ज्ञाता- द्रष्टाभाव रखने से सहज ही संवर-साधना हो जाती है, उससे सम्बन्धित कर्मों का आनव टल जाता है।
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