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________________ * ५२६ - कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट - ___ षड्जीवनिकाय-संयम-षड्जीवकाय-संयम-पृथ्वीकाय आदि ५ स्थावर और त्रस: इन छह जीवनिकायों के संयम को उनके संघट्टन आदि से होने वाली विराधना के परित्याग को षड्जीवनिकाय-संयम कहते हैं। षष्ठभक्त (प्रत्याख्यान) तप (बेला)-छटी भोजन वेला में, (दो दिन के उपवास के वाद) पारणा करने को षष्ठभक्त (छट्टभत्त) तप कहा जाता है। सकल चारित्र-पूर्णतया पंचमहाव्रतपालक त्यागी अनगार। सकल परमात्मा-चार घातिकर्मों से रहित अरिहन्त। सत्कार-पुरस्कार-परीषहजय--पूजा-प्रशंसा का नाम सत्कार है और क्रिया के प्रारम्भ आदि में आगे करना, आमन्त्रित करना पुरस्कार है। किसी दीघकालिक संयमी, तपस्वी, ब्रह्मचारी को, बहुश्रुत विद्वान् को, प्रवक्ता को लोगों द्वारा आदर- सत्कार न दिये जाने पर तथा अज्ञानी लोगों द्वारा उसकी आलोचना, निन्दा किये जाने पर भी मन में रोप, क्रोध, उफान न आना, किसी प्रकार की दुर्भावना को मन में न आने देना, निमित्तों पर रोष न करना, प्रतिक्रिया न करना, समभाव से अपने सत्कार्य, स्वाध्याय, ज्ञानध्यान में दनचित्त रहना उक्त श्रमण द्वारा सत्कार-पुरस्कार विजय कहलाता है। सत्य-मनोयोग-सत्य-पदार्थ-विषयक ज्ञान उत्पन्न करने वाली शक्ति भावमन है, अतः समीचीन पदार्थ को विषय करने वाला मन सत्य-मन है, उसके आश्रय से जो योग = प्रयत्न-विशेष होता है, वह सत्य मनोयोग कहलाता है। सत्य-महाव्रत-क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह एवं हास्यवश असत्य भाषणरूप परिणाम, असत्य वचन तथा असत्याचरण का मन-वचन-काया से. कृत-कारित अनुमोदितरूप से त्याग करना सत्य-महाव्रत का लक्षण है। अन्य को संतप्त करने वाला वचन भी न बोलना, सूत्र व अर्थ-विषयक अन्यथा कथन न करना भी सत्य महाव्रत है। सत्य-वचनयोग--दस प्रकार के सत्य-वचन के आश्रय से जो योग-आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है, उसे सत्य-वचनयोग कहते हैं। सत्याणुव्रत-स्थूल असत्य स्वयं न बोलना दूसरों से न बुलवाना तथा विपत्तिजनक सत्य भी न बोलना, यह स्थूल मृपावाद विरमणव्रत यानी सत्याणुव्रत है। सत्त्व-वीर्यान्तराय के क्षयोपशम आदि से आत्मा का जो परिणाम होता है, वह सत्त्व है, सुदृढ़ मनोवल को भी सत्त्व कहते हैं। __सत्त्व-सत्ता-कर्मों का आत्मा के साथ अबाधाकाल तक बना रहना, उदय में न आने तक अस्तित्त्व रूप में पड़े रहना सत्ता है। इसे दिगम्बर-परम्परा में राज्य में रहना कहते हैं। सवेदनीय कर्म-जिसके उदय से देवादि गतियों में शारीरिक-मानसिक सुख- प्राप्ति हो, वह सवेदनीय, सवेद्य या सातावेदनीय कर्म है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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