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________________ * ५२४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट । शुक्नध्यान-(I) जिस ध्यान में सुविशुद्ध आत्म-गुणों का संयोग हो, जहाँ कर्मों का क्षय या उपशम हो, जिसमें लेश्या भी शुक्ल हो, उसे शुक्लध्यान कहा जाता है। (II) असंक्लिष्ट परिणाम को शुक्लध्यान कहते हैं अथवा अष्टविध कर्मरज को जो शुद्ध करता है, वह शुक्लध्यान है। शुक्ललेश्या-पक्षपात न करना, निदान न करना, समस्त प्राणियों पर समताभाव रखना तथा राग-द्वेष से रहित होना, ये शुक्ललेश्या के लक्षण हैं। शुद्ध चेतना-मात्र ज्ञान का अनुभव करना शुद्ध चेतना है। शुद्ध ध्यान-रागादि की परम्परा नष्ट हो जाने पर जब अन्तरात्मा प्रसन्न होता है, तब जो आत्म-स्वरूप की प्राप्ति होती है, उसे शुद्ध ध्यान कहा गया है। शुद्ध सम्प्रयोग-सिद्धि के कारणभूत अर्हन्त आदि परमेष्ठियों के विषय में जो गुणानुरागरूप भक्ति से अनुरंजित मन का व्यापार होता है, उसे शुद्ध सम्प्रयोग कहते हैं। शुद्धात्मा-आत्मा स्वभावतः जिसकी शुद्ध हो तथा त्रिविध दण्ड, द्वन्द्व. ममता, आकुलता, परावलम्बन, राग, द्वेष, मूढ़ता, भय, परिग्रह, मूर्छा (आसक्ति), शल्य, काम, क्रोध, मान और मद, इन समस्त दोषों से रहित होने से जिसकी आत्मा शुद्ध है, वह शुद्धात्मा है। शुद्धि-(I) चित्त का प्रसन्न रहना, यही शुद्धि का लक्षण है। (II) निर्मल ज्ञान और दर्शन का आविर्भाव होना भी शुद्धि है। शुद्धोपयोगी श्रमण-जिसने पदार्थप्ररूपकसत्र (परमागम) को भलीभाँति जान लिया है, जो तप और संयम से युक्त हो कर रागरहित है, शुद्ध आत्म-ज्ञान में दक्ष है, सुख-दुःख में समभावी है, वह शुद्धोपयोगी श्रमण है। शुभ काययोग-अहिंसा, अस्तेय और ब्रह्मचर्य का परिपालन करना इत्यादि शुभ काययोग है। शोकमोहनीय (नोकषाय का एक भेद)-जिस कर्म के उदय से इष्ट-वियोग आदि के समय में प्राणी छाती पीट-पीट कर जोर-जोर से रोता है। गुणानुस्मरणपूर्वक विलाप करता है, पृथ्वी पर लोटता है तथा दीर्घ श्वास लेता है, उसे शोकमोहनीय कर्म कहते हैं। __ शौचधर्म-(I) जो मुनि कांक्षाभाव को छोड़ कर वैराग्यभावना से युक्त होता है, उसका वह धर्म शौचधर्म होता है। (II) लोभ के जितने भी प्रकार हैं, उनसे प्रकर्षरूप से निवृत्त हो जाने पर शुचिभाव (निर्मलता) या शुद्ध कर्म होना शौचधर्म है। यह दशविध श्रमण (उत्तर) धर्म का एक अंग है। श्रद्धा-(I) व्यामोह, संशय और विपर्यास से रहित 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार की प्रतीति श्रद्धा है। (II) तत्त्वार्थाभिमुखी रुचि का नाम श्रद्धा है। (11) मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के क्षयोपशमादि से चित्त की प्रसन्नता श्रद्धा कहलाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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