SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 676
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ५२२ कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * संकल्पपूर्वक पालन करना तथा अशुभ कर्म से निवृत्त होना और शुभ कर्म में प्रज्ञ करना व्रत है। व्रती-जो माया, निदान और मिथ्यादर्शन. इन तीन शल्यों से रहित हो कर अहिंसादि व्रतों से विभूषित होता है, वह व्रती कहलाता है। (श) शकटजीविका-गाड़ियाँ और उनके अंगभूत चक्के आदि बनाना. वेचना और भाड़े पर चलाना शकटजीविका है। शकटीकर्म (साडीकम्मे)-गाड़ियाँ बनाना, भाड़े पर चलाना, और उसके द्वारा आजीविका करना शकटीकर्म है। ये दोनों धन्धे वसजीवों को पीड़ादायक, सस्थावर-हिंसाजनक होने से हेय हैं। इसीलिए इन्हें कर्मादान (खरकर्म) में गिनाया है। शक्तितस्तप-यह शरीर दुःख का कारण, अनित्य और अपवित्र है, अभीष्ट भोगों के द्वारा इसे पुष्ट करना उचित नहीं है; अपवित्र हो कर भी यह गुणरूप रत्नों के संचय करने में उपकारी है, ऐसा विचार करके विषयसुख में आसक्त न हा कर उसका उपयोग दास की तरह करना। जिस प्रकार कार्य के सम्पादनार्थ सेवक को भोजन और वेतन आदि दिया जाता है, उसी प्रकार रत्नत्रयादि गुणों को प्राप्त करने के लिए यथायोग्य इस शरीर का पोषण करना तथा शक्ति के अनुरूप आगमानुसार वाह्याभ्यन्तर तप करना शक्तितस्तप कहलाता है। शक्तितस्त्याग--पात्र के लिए दिया गया आहारदान उसी दिन में उसकी प्रीति का कारण होता है। अभयदान एक भव की आपत्तियों को, दूर की आपत्तियों को दूर करने वाला है, किन्तु सम्यग्ज्ञान का दान हजारों भवों के दुःखों से मुक्त कराने वाला है। इस कारण विधिपूर्वक इस तीन प्रकार के दान देना या त्याग करना शक्तितः त्याग कहलाता है। शंका-सर्वज्ञ आप्त पुरुपों द्वारा उपदिष्ट (आगमगम्य अतीन्द्रिय) कतिपय पदार्थ हैं या नहीं ?इस प्रकार का सन्देह करना शंका है। शब्दानुपात-मर्यादित क्षेत्र के बाहर व्यापार करने वाले पुरुषों को लक्ष्य करके खाँसने आदि का शब्द करके समझाना या बुलाना शब्दानुपात नामक देशावकाशिक व्रत का अतिचार है। __शय्या-परीषहजय-तीक्ष्ण, विषम, ऊबड़-खाबड़, अधिक रेतीले. पथरीले, कंकरीले, शीत या उष्ण भूमि वाला प्रदेश ठहरने और सोने के लिए मिले, फिर भी साधक विना किसी प्रकार की उद्विग्नता, चंचलता या प्रतिक्रिया के प्राणियों की किसी प्रकार की विराधना न हो, इस प्रकार प्रमार्जन-प्रतिलेखनापूर्वक शव के समान निश्चल हो कर सोने रहने-बैठने वाला, जो साधक व्यन्तर आदि के उपद्रव से विचलित न हो कर शान्ति से ज्ञान-ध्यान में चित्त लगाता है, तो वह शय्या-परीपह पर विजय कर लेता है। इसे शय्या परीपह-सहन भी कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy