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________________ * पारिभाषिक शब्द कोष * ५१९ वेदनाभय-मलों के प्रकोप से शरीर में जो रोगादिजनित वेदना उत्पन्न होती है, वह आगन्तुक है। अभी आई नहीं है, उससे पहले ही शरीर में कम्पन होना, अज्ञानतावश उसके लिए चिन्तातुर होना कि मैं कैसे निरोग होऊँगा ? मुझे कहीं व्याधिजनित वेदना न हो जाये' यही वेदनाभय है, जो भयमोहनीय कर्म के उदय से होता है। वेदनीयकर्म = वेद्यकर्म-मधुलिप्त तलवार की धार के समान जो कर्म सुख-दुःख क अनुभवन (वेदन) कराने के स्वभाव वाला है, वह वेदनीय या वेद्य कर्म है। उसके दो प्रकार हैं- सातावेदनीय और असातावेदनीय । वेहाणस-मरण-पेड़, पंखे आदि से उद्बन्धन गले में बंधन ( फाँसी) डाल कर आकाश में (झूल कर मरण होता है, उसे वेहाणस या वैहायस - मरण कहते हैं। = " वैक्रियशरीर - (I) जिस कर्म के उदय से जीव (आत्मा) के साथ वैकुर्विक शरीर के परमाणु बन्ध को प्राप्त होते हैं, उसको वैक्रियशरीर - नाम कहते हैं | (II) अणिमादि अष्टगुणरूप सिद्धियों के सम्बन्ध से छोटे-बड़े स्थूल सूक्ष्म, एक-अनेक आदि नाना प्रकार के रूपों का निर्माण किया जाना विक्रिया है, विक्रियारूप प्रयोजन सिद्ध करने वाले शरीर को वैक्रिय या वैक्रियिकशरीर कहते हैं | (III) सूक्ष्मातिसूक्ष्म कार्य करने में समर्थ, पुद्गलों से रचित तथा विविध क्रियाओं को करने के प्रयोजन वाला शरीर वैक्रियशरीर होता है। आर किसमुद्घात - (I) एकत्व - पृथक्त्वरूप अनेक प्रकार के वैक्रियिकशरीर, वाक्प्र आदि विक्रियारूप प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले समुद्घात - आत्म-प्रदेशी ! शर से बाहर निकलने को वैक्रिय - समुद्घात कहते हैं | (II) वैक्रियशरीर-नामकर्म उदय वाले देवों और नारकों द्वारा स्वाभाविक आकार को छोड़ कर विभिन्न आकारों में अवस्थित होना वैक्रिय-समुद्घात कहलाता है। वैनयिक मिथ्यात्व - (1) समस्त देवों और सभी शास्त्रों को उनकी यथार्थता-अयथार्थी का विवेक न करके समानरूप में देखना वैनयिक मिथ्यात्व है ! (II) जिनका प्रया एकमात्र सबका विनय करना ही होता है, वे वैनयिक मिथ्यादृष्टि माने गये (III) इहलोक-परलोक-सम्बन्धी सभी सुख विनय से ही प्राप्त होते हैं, न कि ज्ञान, द तप और उपवास के लेश से विनय से ही मोक्ष होता है, इस प्रकार की एक मान्यता को वैनयिक मिथ्यात्व कहते हैं। इस प्रकार के मिध्यात्व से ग्रस्त व्यक्त वैनयिकवादी भी कहलाते हैं। विनयवाद - ( 1 ) एकान्तरूप से विनय को ही स्वीकार करना विनयवाद है। इनकी मान्यता है कि सुर, राजा, ज्ञाति, यति, स्थविर (वृद्ध), अधम, माता, पिता, इन ८ में से प्रत्येक का देश व काल की उपपत्ति के साथ काय, वचन, मन और दान, इन चार के द्वारा विनय करना चाहिए । यों ८ भेदों के साथ इन ४ को गुणित करके ८ x ४ = ३२ भेद एकान्त विनयवाद के हुए । विनयवाद का एक और प्रकार भी है - कुत्ता, गाय, मनुष्य, चाण्डाल या कोई भी जीव सामने मिल जाये सबका यथायोग्य विनय करना यह भी एकान्त विनयवाद का रूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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