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________________ * ५१६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * की सीमा का अतिक्रमण करना, वहाँ के कानून का उल्लंघन करना भी विरुद्धराज्यातिक्रम है। यह तृतीय अणुव्रत का अतिचार है। विविक्त-स्वाध्याय, अध्ययन, ध्यान, धारणा आदि में बाधक स्त्री, पशु, नपुंसक आदि कारणों से रहित पर्वत की गुफा, कन्दरा, प्राग्भार, श्मशान या जनशून्य गृह, अथवा उद्यान आदि स्थान विविक्त माने जाते हैं। विविक्त के अर्थ हैं-विजन, छन्न, पवित्र, एकान्त और स्त्री आदि के निवास-सम्पर्क से रहित या जनसम्पर्क से रहित। विविक्तशय्यासन तप-(I) तिर्यंचनी, मनुष्यनी (नारी), विकारयुक्त देवी, जन्तु, नपुंसक आदि के तथा जनसम्पर्क से रहित स्थान को प्रयत्नपूर्वक छोड़ कर निर्वाध स्थान में आसन व शय्या लगाना विविक्तशय्यासन तप है। (II) ब्रह्मचर्य के परिपालन, तथा पवित्रता, ध्यान, धारणा, स्वाध्याय, अध्ययन आदि के लिए जन्तु-पीड़ा से रहित निर्जन शून्य गृह आदि में सोना, बैठना आदि विविक्त शय्यासन तप है। विवेक-प्रतिमा-विवेक का अर्थ है-विवेचन यानी त्याग। आभ्यन्तर कपाय आदि तथा बाह्य-गण, उपधि, शरीर और भक्त-पान आदि जो अनावश्यक या अयोग्य हों, उनका परित्याग करना। किन्तु इन सब गण आदि के प्रति घृणा, द्वेष, अरुचि या ईष्या न करना, इनके प्रति अन्तर में आस्था व आदरभाव रखना यह व्युत्सर्ग नामक आभ्यन्तर तप के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है। विशुद्धता-अतिशय तीव्र कषाय का अभाव या मन्द कषाय का नाम विशुद्धता है। यह सात बन्धकों की विशुद्धता है। विशुद्धि-(I) विवक्षित ज्ञानावरणीयादि कर्मों के क्षयोपशम होने पर जो आत्मा की निर्मलता होती है, उसका नाम विशुद्धि है। (II) अपराध से मलिन हुए आत्मा को आलोचना, निन्दना, गर्हणा, प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त द्वारा निर्मल करने का नाम शुद्धिआत्म-शुद्धि है। (III) सातावेदनीय नाम (पुण्य प्रकृति) के बन्ध योग्य परिणाम को भी (भाव) विशुद्धि कहते हैं। विशुद्धि-स्थान परिवर्तमान (परावर्तमान), साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर और आदेय आदि पुण्य प्रकृतियों के बन्ध के कारणभूत (मन्द) कषाय-स्थानों को विशुद्धि-स्थान कहा जाता है। विशोधि-विशेष प्रकार से शुद्धि विशोधि है। शिष्य के द्वारा हुए अपराध की आलोचना कर लेने पर उसको यथायोग्य प्रयाश्चित्त दिया जाना, विशोधि कहलाती है। विश्वस्त-मंत्रभेद-विश्वास को प्राप्त जो मित्र व पत्नी आदि हैं, उनके मंत्र कोगोपनीय अभिप्राय (बात) को प्रकट कर देना विश्वस्त-मंत्रभेद है। यह सत्याणुव्रत का एक अतिचार है। विषय-(I) द्रव्य-पर्यायरूप अर्थ विषय है। (II) इन्द्रियों और मम को सन्तुष्ट करने वाले पदार्थ विषय कहलाते हैं। (III) जिह्वा आदि इन्द्रियों से जिन रस आदि को ग्रहण किया जाता है, वे उनके विषय माने गये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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