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________________ * ५०६ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * यम-भोगोपभोग का परिमाण करने के लिए यावज्जीवन जो व्रत या नियम लिए जाते हैं, उनका नाम यम है, और जो प्रतिदिन के लिए प्रत्याख्यान या नियम लिये जाते हैं, वे प्रायः नियम कहलाते हैं। ___ यशःकीर्ति-नामकर्म-किसी अच्छे पराक्रम के आश्रय से सर्वजन द्वारा कीर्तनीय गुणों की जो ख्याति सब दिशाओं में फैलती है, उसे यश कहते हैं; तथा पुण्य-प्रभाव से उन : गुणों का एक ही दिशा में फैलना कीर्ति है। (I) जिसके उदय से यश और कीर्ति दोनों हो, उसे यशःकीर्ति-नामकर्म कहते हैं। (II) तप, शूरवीरता और त्याग (दान) में पराक्रम इत्यादि गुणों के कारण जिस यश को उपार्जित किया जाता है, उसे शब्दों द्वारा प्रकट . किया जाना यशःकीर्ति-नामकर्म है। ___ याचना-परीषहजय-भिक्षु-भिक्षुणी भिक्षाजीवी होते हैं, उन्हें वस्त्र, पात्र, अन्न-पान एवं वसति आदि सब दूसरों-गृहस्थों से याचना करने पर ही प्राप्त होते हैं। आम स्वाभिमानी गृहस्थ याचना करने में जहाँ लज्जा, गौरवहीनता एवं दीनता अनुभव करता है, वहाँ सर्वसंपत्करी भिक्षाजींवी जो साधु याचना में किसी प्रकार की दीनता-हीनता अनुभव नहीं करता है, उस परीषह को धर्म समझ कर सहन करता है, वह याचना-परीषह-विजयी है। योग-(I) मन-वचन-काया के आश्रय से आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन होना योग है। (II) वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई पर्याय से जो आत्मा का सम्बन्ध होता है, उसका नाम योग है। योग (आत्म-साधना की दृष्टि से)-(I) जो आत्म-परिणाम विपरीत अभिप्राय को छोड़ कर जिनप्रज्ञप्त तत्त्वों में आत्मा को योजित (संलग्न) करता है, वह योग है। (II) क्लिष्ट-चित्तवृत्ति-निरोध योग है। (III) सम्यक् - प्रणिधान यानी एकाग्रचिन्तानिरोधरूप समाधि को योग कहते हैं। योग-भक्ति-जो साधु स्वयं को राग-द्वेषादि के परित्याग में तथा समस्त विकल्पों के अभाव = निर्विकल्प समाधि में योजित करता है, उसकी वह भक्ति योग-भक्ति है। योग-वक्रता-मन-वचन-काया की कुटिलतापूर्ण प्रवृत्ति। योग-सत्य-साधु के २७ गुणों में से एक गुण। मन-वचन-काया के योगों की यथार्थता। जैसा मन में हो, वैसा ही वचन से प्रगट करना और काया से भी तदनुरूप चेष्टा करना योग-सत्यता है। योनि-जीवों का उत्पत्ति स्थान। ये योनियाँ कुल ८४ लाख हैं। (र) रति-(I) जिस कर्म के उदय से शब्दादि विषयों के प्रति या असंयम के प्रति प्रीति या उत्सुकता रहती है, उसे रति-नोकषाय कहते हैं। इसके विपरीत संयम में प्रीति या रुचि का न होना अरति है। रति और अरति ये दोनों नोकषाय मोहनीय के दो भेद हैं। अटारह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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