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________________ * ५०४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * विषय-सुखों से निवृत्ति होने पर आत्यन्तिक अव्याबाध आत्मिक सुख से निवृत्ति वाली नहीं है। आत्मा के सर्वगुणों से मुक्त जीव मुक्ति में रहता है, वहाँ अक्षय, अनन्त शाश्वत-सुख है, और वह अनन्त ज्ञान-दर्शनमयी है। मूढदृष्टि - आत्म-स्वरूप से च्युत हो कर इन्द्रियों द्वारा बाह्य पदार्थों में मुग्ध होता हुआ, जो अपने शरीर को ही आत्मा मानता है, वह मूढदृष्टि कहलाता है। मिथ्यादृष्टिजनों की पूजा-प्रतिष्ठा, आडम्बर आदि देख कर जिसकी मति व्यामूढ़ हो जाती है, वह भी मूढदृष्टि है। मूर्च्छा - (I) इन्द्रिय-विषयों में भावतः आसक्ति । (II) बाह्य और आभ्यन्तर उपधियों के रागादिवश संरक्षण, उपार्जन और संस्करण आदि में रचे- पचे रहना | (III) मोहवश 'यह मेरा है' इस प्रकार का ममत्वावेश भी मूर्च्छा है। मृदु-स्पर्शनाम - (I) जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गलों में मृदुता = कोमलता हो। (II) अथवा प्राणी का शरीर - स्पर्श मृदु हो, वह । मृषानन्द = मृषानुबन्धी रौद्रध्यान - (1) दूसरों को ठगने, धोखा देने, असत्य वचन एवं आचरण से अपना बचाव करने या दूसरों को सन्तुष्ट करने का प्लान बनाना, मन में घाट घड़ते रहना, इस प्रकार का ध्यान। (II) जो कर्म के भार से युक्त होने से सदैव असत्यअसमीचीन, असद्भूत वचनों से दूसरों को झाँसा देने का ध्यान करता है वह मृषानन्दी जीव का मृषानुबन्धी रौद्रध्यान है। मृषाभाषा - जो भाषा यथार्थ वस्तु-स्वरूप के प्ररूपक सत्य की विराधिनी होती है, वह। मृषावाद- अप्रशस्त वचन का नाम मृषावाद है, जो मिथ्यात्व असंयम, प्रमाद औ कषायवश बोला जाता है। मृषावाद - विरमण-क्रोध, लोभ, भय और हास्य तथा राग और द्वेष से द्रव्य से असत बोलना, क्षेत्र से समस्त लोक में, काल से यावज्जीव तक और भाव से तीन करण और तीन योग से (यानी जीवनपर्यन्त मन-वचन-काया से असत्य बोलने, बुलवाने और बोलने वाले का अनुमोदन करने का ) त्याग करना मृषावाद - विरमण है। दूसरे शब्दों मे सत्यमहाव्रत है। मैत्रीभावना - मन-वचन-काया से समस्त प्राणियों के प्रति अदुःखजननी, परहित-चिन्ता, मित्रता - चिन्तन मैत्रीभावना है। मैथुनसंज्ञा - (I) वेदमोहनीय के उदय से मैथुन की अभिलाषारूप जीव का परिणाम मैथुनसंज्ञा है | (II) नित्य सरस स्वादिष्ट भोजन करने, ऐसे भोजन के प्रति ही आसक्ति रखने, कुशील सेवन करने तथा वेदमोहनीयकर्म की उदीरणा से मैथुन संज्ञा होती है। मोक्ष - (I) समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय हो जाना मोक्ष है। (II) जीव और क का वियोग हो जाना मोक्ष है। (III) बन्ध के हेतुभूत आम्रवों के निरोधस्वरूप संवर और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का क्षय हो जाना मोक्ष है। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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