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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४९७ * (प्रवृत्ति) होता है, उसे उपयोग कहते हैं। इन दोनों को भावेन्द्रिय कहते हैं। (II) समस्त आत्म-प्रदेशों से सम्बन्धित श्रोत्रादि इन्द्रिय-विषयक आवरण के क्षयोपशमरूप लब्धि और उपयोग का नाम भावेन्द्रिय है। भाषाद्रव्यवर्गणा-स्पष्ट वचन बोलने वाले व्यक्ति द्वारा वर्ण, पद और वाक्य के आकार में जो कुछ बोला जाता है, उसे भाषा कहते हैं। भाषाद्रव्यवर्गणाएँ उसे कहते हैं, जो वर्गणाएँ उत्तरोत्तर एक-एक वृद्धि वाले स्कन्धों से प्रारम्भ हो कर षा की उत्पत्ति में कारण हों। यह वर्गणा चार प्रकार की भाषा को ग्रहण करने में प्रवृत्त होती है। यथासत्या, मृषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा। भाषापर्याप्ति-भाषा के योग्य द्रव्य के ग्रहण करने और छोड़ने के निष्पादनरूप क्रिया की समाप्ति भाषापर्याप्ति है। . भाषासमिति-पैशुन्य, हास्य, कर्कश, पर-निन्दा, आत्मा-प्रशंसारूप विकथादि वर्जित करके स्व-पर हितकर सत्य, परिमित असंदिग्ध, निष्पाप वचन विचारपूर्वक बोलमा भाषासमिति कहलाती है। भूयस्कारबन्ध-थोड़ी प्रकृतियों को बाँध कर आगे बहुत कर्मप्रकृतियों को बाँधना भूयस्कारबन्ध या भुजाकारबन्ध कहलाता है। भोक्तृत्व-शुभाशुभ कर्मों के निष्पादन का नाम कर्तृत्व है, इस कर्तृत्व के कारण शुभाशुभ कर्मों को भोगा जाना भोक्तृत्व है। भोग (भोगाकांक्षा) कृत निदान (नियाणा)-(I) देवों, मनुष्यों-सम्बन्धी भोगों की वांछा करना तथा स्त्रीत्व, पुरुषत्व, ईश्वरत्व, श्रेष्ठित्व, सार्थवाहत्व, वासुदेवत्व या चक्रवर्तित्व-प्राप्ति की वांछा करना भोगकृत-निदान है। (II) इस व्रत-शीलादि से मुझे इस लोक या परलोक में इस प्रकार के भोग प्राप्त हों, ऐसा मन में विचार या संकल्प-विकल्प करना भोगकृत निदान हैं। भोगभूमिज मनुष्य-तिर्यंच-भोगभूमिज मनुष्य मन्द-कषायी हो कर उदय-प्राप्त प्रशस्त कर्मप्रकृतियों के फलस्वरूप विविध आमोद-प्रमोद में आसक्त रहते हैं। भोगान्तराय-जिसके उदय से वैभव के रहते हुए तथा त्याग के परिणाम न होने पर जो जीव भोगों को नहीं भोग सकता, ऐसे भोगविषयक विघ्न को भोगान्तराय कहते हैं। भोगोपभोग-परिमाण-श्रावक का सातवाँ व्रत। जिस व्रत में भोग्य और उपभोग्य वस्तुओं (२६ प्रकार के बोलों) की यावज्जीवन की मर्यादा की जाती है, तथा १५ प्रकार के कर्मादानों (खरकर्मों) का त्याग किया जाता है, वह भोगोपभोग-परिमाणव्रत या उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत कहलाता है। भ्रान्ति-(I) किसी वस्तु में उसके सदृश अन्य वस्तु का बोध होना भ्रान्ति है। (II) जो वह नहीं है, उसमें उसका ज्ञान होना भ्रान्ति कहलाती है। जैसे-सीप को देख कर उसमें बादी का ज्ञान। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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