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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४९५ * भवस्थिति-एक भव में जितने काल तक का अवस्थान है, यानी स्थिति (आयुष्यकर्म) है, उसका नाम भवस्थिति है। भवाभिनन्दी-जो जीव निरर्थक महारम्भ और महापरिग्रह में रत और विषयासक्ति में सुख मान कर भवभ्रमण में ही. आनन्द मानता है, संसार की रंगीनियों में ही डूबा रहता है, वह भवाभिनन्दी है। भव्य-द्रव्य देव-जो मनुष्य या तिर्यंच भविष्य में देवों में जन्म लेने वाले हैं, उन्हें भावी (भव्य) द्रव्य देव कहते हैं। भाव-(I) जीव के परिणाम-विशेष का नाम भाव है, जो तीव्र, मन्द निर्जराभाव आदि के रूप में अनेक प्रकार का है। (II) कर्म-विशेष के उपशम आदि के आश्रय से जो जीव की परिणति होती है, उसे भाव कहते हैं। (III) चारित्रादिरूप परिणाम को भी भाव कहते हैं। भाव पाँच प्रकार का है-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक भाव। ___ भावकर्म-कर्मपुद्गलों के पिण्डरूप द्रव्यकर्म के साथ जब राग-द्वेषादि विकार होते हैं तो वे भावकर्म कहलाते हैं। ___ भावतीर्थ-(I) सभी तीर्थंकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र से संयुक्त रहते हैं, इसीलिए दाह की शान्ति, तृष्णा का छेद और मलरूप कीचड़ की शुद्धि, इन तीन कारणों से उन्हें भावतीर्थ कहा जाता है। (II) क्रोधादि का निग्रह करने में समर्थ प्रवचन को भी भावतीर्थ कहते हैं। सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र भी भावतीर्थ कहलाते हैं। इन रत्नत्रयों को सर्वविरतिरूप से धारण करने के कारण तथा स्वयं तरने और भव्य जीवों को तारने में कारण होने से चतुर्विधसंघ, अथवा पंच-परमेष्ठी भी भावतीर्थ कहलाते हैं। भावधर्म-(I) आत्मा (जीव) का स्वभाव (ज्ञान-दर्शन-सुख-शान्तिरूप) भावधर्म है। जो प्रशमादि चिह्नों के द्वारा जाना-पहचाना जाता है। (II) क्षायोपशमादिरूप शुभ लेश्या-परिणाम-विशेष से दानादि कार्यों में जो मन को उल्लास या हर्ष होता है; उसे भी भावधर्म कहते हैं। ___ भावना-(I) ध्यान के अभ्यास की क्रिया को भावना कहते हैं। (II) वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम तथा चारित्रमोह के उपशम, क्षयोपशम की अपेक्षा से आत्मा के द्वारा जो बार-बार भायी जाती है-पुनः-पुनः जिसमें प्रवृत्त हुआ जाता है, उसे भावना कहते हैं। ये मैत्री आदि ४ हैं, तथा अनुप्रेक्षा के नाम से अनित्यादि १२ भावनाएँ हैं। भावनायोग-समस्त परभावों को अनित्यादि भावनाओं से जान कर अनुभवात्मक भावना से आत्म-स्वरूपाभिमुख योगवृत्ति के मध्य में स्थित हो कर आत्मा को मोक्षमार्ग से जोड़ना-संलग्न करना भावनायोग है। भावनायोग के द्वारा शुद्ध आत्मा जल पर नाव की तरह संसार-सागर को पार करती हुई किनारे पर पहुँच जाती है। भावनिक्षेप-वर्तमान में विवक्षित पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भावनिक्षेप कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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