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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४९३ * भी बोधि का नाम सुनने पर भी किसी विरले ही संज्ञी पंचेन्द्रिय को-चण्डकौशिक सर्प या नन्दन-मणिहार मेंढक को पूर्वजन्मकृत शुभ कर्म के फलस्वरूप बोधि प्राप्त होती है। नारकभव में तो पूर्वभव में क्षायिक सम्यक्त्वी हो या सम्यग्दर्शन किसी निमित्त से प्राप्त हुआ हो तो बोधि प्राप्त होती है। तथैव देवभव में भी सम्यग्दृष्टि के सिवाय अन्य देव को बोधिदुर्लभ है। कुमानुष योनि में तथा मनुष्यभव में भी बोधि सबको कहाँ सुलभ है। मुझे शुभ कर्मवश क्षयोपशमवश बोधि प्राप्त हुई है, तो इसको प्राप्त करके मोहकर्म को अधिकाधिक उपशान्त, मन्द और क्षय करने का पुरुषार्थ करूँ, ताकि दुर्लभतर उत्तमबोधि प्राप्त हो सके, इस प्रकार का चिन्तन करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। ब्रह्मचर्य-ब्रह्म अर्थात् शुद्ध आत्मा, परम आत्मा में ही विचरण करना मन-वचन-काया से पंचेन्द्रिय विषयों एवं कषायों एवं विजातीय लिंग के प्रति अब्रह्मचर्य से दूर रख कर आत्म-स्वभाव में लीन रहना, कामोत्तेजना के बाह्य निमित्तों से दूर रहना ब्रह्मचर्य है। इसका भलीभाँति पालन मनसा, वाचा, कायेन करने से होता है। ब्रह्मचर्य या ब्रह्मचर्यवास दशविध उत्तम श्रमणधर्म का एक अंग है। पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन के लिए दिव्य, मानुष एवं तिर्यंच-सम्बन्धी समस्त अब्रह्मचर्यवर्द्धक विकारों से मन-वचन-काया से कृत-कारित-अनुमोदित रूप से सजग रहना जरूरी है। ब्रह्मचर्याणुव्रत-श्रावक का चतुर्थ अणुव्रत। यह स्व-पत्नी-संतोष-पर-स्त्री-विवर्जनरूप है। इसके ५ अतिचार हैं। परस्त्रीगमन स्वयं न करना, न कराना, इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत कहते हैं। भक्तकथा-रसनेन्द्रिय-विषयासक्त स्वादलोलुप साधक-साधिका द्वारा खांद्य, पेय, व्यंजनों, मिष्टान्नों आदि की ही चर्चा करते रहना, अधिकतर समय इसी की कथा में व्यतीत करना भक्तकथा नामक दोष है, वचनगुप्ति में बाधक है। संयम पर कुठाराघात करने वाली कथा है यह। भक्त-परिज्ञा-त्रिविध या चतुर्विध आहार को शास्त्रोक्त छह कारणों से ग्रहण करना और छह कारणों से त्याग करना भक्त-परिज्ञा है। भक्त अर्थात् भोजन का-अमुक भोज्य-वस्तु या स्वादिष्ट-सरस भोजन या रूक्ष भोजन का भी ज्ञपरिज्ञा से हानि-लाभ जान कर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से हानिकारक एवं त्याज्य खाद्य-पेय का त्याग करना। अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, शारीरिक क्षमता आदि को जान कर आहार-त्याग करना भी भक्त-परिज्ञा है। भक्त-प्रत्याख्यान-इसके दो प्रकार हैं-(I) उपवास, बेला, तेला आदि बाह्य (इत्वरिक अनशन) तप के समय तेविहार या चउविहार भक्त-प्रत्याख्यान तप किया जाता है। (II) संलेखना-संथारा ग्रहण करने के समय यावज्जीव भक्त- प्रत्याख्यान किया जाता है। इसका विधिपूर्वक प्रत्याख्यान किया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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