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________________ * पारिभाषिक शब्द-कोष * ४७९ * (III) इसे प्रायोगमन या प्रायोपवेशन भी कहा गया है जिसका अर्थ है-संन्यास के प्रायोग्य अनशना पाप-पापकर्म-(I) अशुभ कर्म पुद्गल को पाप कहते हैं। (II) आत्मा को जो दुर्गति में गिराता है, पतन कराता है, वह पाप है। (II!) अशुभ कर्मप्रकृतियों को पापकर्म कहते हैं। चार घातिकर्म पाप तथा चार अघातिकर्म मिश्र हैं, पुण्य-पाप उभयरूप हैं। पापकर्म-बन्धक-अबन्धक-जो साधक सूत्राज्ञा के विपरीत, यतना से चलना, बैठना, सोना, खाना-पीना, बोलना आदि प्रवृत्तियाँ नहीं करता, असावधानी से उपयोगरहित प्रवृत्तियाँ करता है, वह पापकर्म को बाँधता है। इसके विपरीत जो यतना से उपयोगसहित, विवेकपूर्वक उपर्युक्त सभी प्रवृत्तियाँ करता है, उसके पापकर्म का बन्ध नहीं होता। पापकर्मोपदेश-बिना ही प्रयोजन के हिंसादि पापकर्मों का उपदेश देना पापकर्म की प्रकृतियाँ कटुक रस वाली हैं, अशुभ हैं। पाप-जुगुप्सा-निर्मल अन्तःकरण से सततः पाप से उद्विग्न रहना, पाप-जुगुप्सा, पापभीरुता है। तथैव पूर्वकृत पापकर्म के विषय में पश्चात्ताप करना, वर्तमान में पाप न करना तथा भविष्य के लिए पाप का चिन्तन न करना अथवा मन-वचन-काया से पाप-विषयक मनन, वचन-कर्तृत्व न करना भी पाप-जुगुप्सा है। पाप-श्रमण-जो साधु आचार्य-कुल से सम्बन्ध तोड़ कर स्वच्छन्दरूप से या स्वमति कल्पना से एकाकी विहार करता है, उपदेश ग्रहण नहीं करता, पाँचों ही विकृतियों (विगइयों) का नित्य प्रचुर मात्रा में सेवन करता है, तपश्चरण में अरुचि रखता है, वह पापश्रमण है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष-जो ज्ञान अपनी उत्पत्ति में आत्मा की ही एकमात्र अपेक्षा रखता है, अन्य इन्द्रियादि कारणों की नहीं, वह पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। ___ पारिणामिकभाव-(I) जिस भाव का कारण द्रव्य का आत्म-लाभ मात्र हो, अन्य कोई - न हो, उसे पारिणामिकभाव कहते हैं। (II) कथंचित् अवस्थित वस्तु एक अवस्था को छोड़ कर अगली दूसरी अवस्था को प्राप्त होती है, इसे भी परिणाम कहते हैं, इसी को अथवा इससे रचे गये को पारिणामिक कहा जाता है। .. पारिणामिकी बुद्धि-(I) आयु के परिपाक के अनुसार जिसका परिणमन होता है, यानी बुद्धि परिपक्वता = अनुभव-वृद्धि को प्राप्त होती है, वह पारिणामिकी बुद्धि है। (II) अथवा अपनी-अपनी विशेष जाति में जो बुद्धि उत्पन्न होती है, वह भी पारिणामिकी है। पार्थिवीधारणा-ध्यानावस्था में मध्यलोक के बराबर क्षीरसागर, उसके मध्य में जम्बूद्वीप-प्रमाण सहनपत्रमय स्वर्ण-कमल, उसके पराग-समूह के भीतर पीली कान्ति से युक्त सुमेरुप्रमाण कर्णिका, उसके ऊपर श्वेतवर्ण के सिंहासन पर स्थित हो कर कर्मों को नष्ट करने में उद्यत आत्मा का चिन्तन करे, यह पार्थिवीधारणा (की प्रक्रिया) है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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