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* ४७२ कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट
नोकर्म-कर्मोदयवश जो पुद्गल - परिणाम जीव के सुख-दुःख का कारण होता है, या. कर्मों के सुख-दुःखरूप फल भुगवाने में सहायक होता है, वह नोकर्म है। ईपत (किंचित्) कर्मरूप वह नोकर्म औदारिक-शरीरादि-स्वरूप होता है।
नोकषाय- वेदनीय-स्त्रीवेद आदि नोकषायरूप से जिसका वेदन किया जाये, उसे नोकषाय- वेदनीय कहते हैं।
नोसंसार-सयोगीकेवली के चारों गतियों में परिभ्रमणरूप संसार का तो अभाव हो गया है, लेकिन असंसार (पूर्ण मोक्ष ) की प्राप्ति अभी नहीं हुई है। अतएव उन्हें ईषत् संसाररूप नोसंसार माना जाता है।
न्यग्रोध-परिमण्डल- संस्थान - जिस नामकर्म के उदय से नाभि से ऊपर के शरीरावयव विशाल हों, किन्तु नाभि से नीचे के अंग छोटे हों, उसको न्यग्रोध - परिमण्डल- संस्थान कहते हैं।
न्यासापहार - धरोहर के रूप में स्वर्ण, आभूषण या नकद राशि आदि रखने को न्यास कहते हैं। न्यास (धरोहर) रखी हुई वस्तु का अपहरण, अपलाप कर देना या हड़प जाना, गबन कर देना, न्यासापहार या न्यासापलाप नामक सत्याणुव्रत का एक अतिचार है।
नैष्ठिक श्रावक - जो निष्ठापूर्वक श्रावकधर्म तथा व्रतनियमों का आचरण करता है, वह ।
(प)
पंचम अणुव्रत - श्रावक का पाँचवाँ परिग्रह- परिमाणव्रत, जिसमें धन-धान्य, द्विपद-चतुष्पद, क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, कुप्य आदि बाह्य परिग्रह की यथाशक्ति मर्यादा की जाती है।
पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक–अप्रत्याख्यानावरण नामक द्वितीय कषाय का क्षयोपशम दान पर स्थावर जीवों की अनिवार्य आवश्यकतावश घात में प्रवृत्त होते हुए भी सजीवों * आकुट्टी की बुद्धि से यथाशक्ति की घात से निवृत्त हो चुका है, उसे पंचम गुणस्थानवर्ती कहा जाता है।
भाव-पंचाग्नि-साधक - काम, क्रोध, मद, लोभ और माया; इन पाँचों अग्नियों श्रग्निसम संतापजनक दुर्गुणों को जिस साधक ने शान्त कर दिया है, वह।
पंचांग- नमस्कार-दो हाथ, दो घुटने और मस्तक, इन पाँच अंगों को जमीन से लगा
कर नमस्कार करना ।
पंचेन्द्रिय-(I) स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र, इन पाँच इन्द्रियों से होने वाले ज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो पंचविध विषयों का ज्ञान कर सकते हैं, वे पंचेन्द्रिय जीव हैं। (II) नारक, मनुष्य और देव तथा संज्ञिपंचेन्द्रिय तिर्यंच, ये पंचेन्द्रिय जीवों की कोटि में आते हैं।
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