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________________ * ४५४ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * तप-आराधना का भी फलितार्थ यही है। दशविध उत्तम (श्रमण) धर्म का भी एक प्रकार है-तप। तपः-प्रायश्चित्त-अनशनादिरूप छह प्रकार के वाह्यतप से गृहीत प्रायश्चित्त को क्रियान्वित करना। तपोविद्या-छट्ठ, अट्ठम आदि तप करके जो विद्याएँ सिद्ध की जाती हैं, वे तपोविद्याएँ कहलाती हैं। तपोविनय-उत्तरगुणों के परिपालन में उत्साह रखना, बारह प्रकार के तप को श्रद्धा-निष्ठा, उत्साह-सत्कारपूर्वक आराधना करना, तप का, तपस्वियों का भक्ति, बहुमान व अनुमोदन करना, तप में होने वाले परिश्रम को निराकुलतापूर्वक सहन करना, यह सब तपोविनय है। तपःसमाधि-जो अनेक गुणयुक्त तप में सदा रत रहता है, इहलोकादि की आकांक्षा से रहित केवल कर्मनिर्जरा का ही एकमात्र लक्ष्य ले कर विशुद्ध तप से पुराने कर्मों को क्षय करता है, नये कर्मों को नहीं बाँधता, वह साधक तपःसमाधि से युक्त कहलाता है। तपोऽर्ह-प्रायश्चित्त का एक प्रकार, जिसमें किसी आराधक के सेवन करने पर निर्विकृति (निविगई) आदि छह माह तक चलने वाला तप प्रायश्चित्त के रूप में दिया जाए, वह प्रायश्चित्त तप के योग्य (तपोऽर्ह) होता है। तर्क-प्रमाण का एक प्रकार। जिसमें व्याप्ति से साध्य-साधनरूप अर्थों के सम्बन्ध का निश्चय करके अनुमान-प्रमाण में प्रवृत्ति होती है, वह तर्क कहलाता है। तटस्थ (I) जो न पक्ष में हो, न विपक्ष में, वह। (II) चिपरीत वृत्ति वाले को समझाने में तटस्थता धारण करना। ताटस्थ्य-जो किसी को प्रेरणा देने में केवल तटस्थनिमित्त हो, अथवा जिसका किसी के साथ तटस्थता-सम्बन्ध हो। जैसे-आत्मा और कर्म का। तटस्थनिमित्त-दूर से ही जिससे प्रेरणा मिलती हो, ऐसा निमित्त। जैसे-सूर्य। तादात्म्य-गुण और गुणी का या द्रव्य और गुण का सम्बन्ध तादात्म्य होता है। जैसेज्ञान और आत्मा का तादात्म्य-सम्बन्ध है। तिक्त-नाम-जिस नामकर्म के उदय से शरीर के पुद्गल तिक्तरसरूप से परिणत होते हैं, वह तिक्त-नामकर्म कहलाता है। तिर्यगतिक्रम-भूमिगत बिल, पर्वतीय गुफा आदि में प्रविष्ट होकर दिग्व्रत की सीमा का उल्लंघन करना, तिर्यगतिक्रम नामक दिग्व्रत का अतिचार है। तिर्यंचायु-जिस कर्म के उदय से जीव का तिर्यञ्च पर्याय में अवस्थान होता है, उसे तिर्यंचायु कर्म कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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