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________________ * ४४० कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * क्षेत्रज्ञान-यह क्षेत्र सुलभ, सरल या साधुजनाधिष्ठित या साधुसेवित है या इन गुणों से विहीन है, इसका विवेक करना। यह आचार्य की अष्टविधगणिसम्पदा के अन्तर्गत प्रयोगमतिसम्पदा के चार भेदों में से तीसरा है। क्षेत्रवृद्धि-श्रावक के छठे दिशापरिमाणव्रत का एक अतिचार। जिस क्षेत्र में श्रावक ने जितने योजन क्षेत्र तक गमनागमन की मर्यादा की है, उसमें बढ़ाना, दूसरे क्षेत्र में घटा कर उस क्षेत्र की मर्यादा बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि-दोष है। क्षेत्र-संसार-(I) सहज शुद्ध लोकाकाश के प्रदेश-प्रमाण जो शुद्ध आत्मा के प्रदेश हैं, उनसे भिन्न कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है, जिसे व्याप्त करके यह जीव अनेक या अनन्त बार जन्म-मरण को प्राप्त न हुआ हो, यही क्षेत्र-संसार है। (II) चौदह राजू-परिमित क्षेत्र में जीव और पुद्गलों का परिभ्रमण होना क्षेत्र-संसार है। क्षेत्र-सामायिक-ग्राम, नगर, खेड़ा, बंदरगाह आदि में से कोई भी अनुकूल या प्रतिकूल क्षेत्र मिले, उसमें समभाव रखना, राग-द्वेष न करना अथवा निवास-स्थानविषयक कषाय को दूर करना क्षेत्र-सामायिक है। क्षेत्रातिक्रम-रहने के स्थान, खेत या अन्य स्थान की परिग्रहपरिमाणव्रत में जो क्षेत्र-मर्यादा रखी है, लोभवश उससे अधिक बढ़ाने की लालसा या आसक्ति रखना क्षेत्रातिक्रम अतिचार है। क्षेत्रार्य-पन्द्रह कर्मभूमियों में अथवा भरत क्षेत्रवर्ती २५॥ देशों में उत्पन्न होने वाले क्षेत्रार्य माने गए। क्षेत्रोपक्रम-क्षेत्र या खेत का परिकर्म (संस्कार) या विनाश किया जाए, उसे क्षेत्रोपक्रम कहते हैं। क्षेम-(I) प्राप्त हुए संयमादि का रक्षण करना क्षेम है। (II) सिद्धशिला का अथवा मुक्त जीवों के निवास स्थान का एक नाम भी क्षेम है। क्षोभ-निर्विकार और निश्चल चित्तवृत्तिरूप चारित्र के विनाशक चारित्रमोह को क्षोभ कहते हैं। खेलौषधिलब्धि (ऋद्धि) = क्ष्वेडौषधिलब्धि-जिस लब्धि या ऋद्धि के प्रभाव से कान, आँख और नाक का मल आदि, जीवों के किसी भी रोग को दूर करने में समर्थ हों, वह लब्धि या ऋद्धि। (ग) गगनगामिनी (आकाशगामिनी) लब्धि या ऋद्धि-जिसके प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सके, वह। गच्छ-एक आचार्य के नेतृत्व में रहने वाले साधु-साध्वियों के समूह को गच्छ कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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