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* पारिभाषिक शब्द - कोष * ४३३ *
काम (पुरुषार्थ) - धर्म -मर्यादा के विरुद्ध इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति की निरंकुश कामनाअभिलीषा या प्राप्ति-प्रयत्न करना (निरंकुश) काम - पुरुषार्थ है। यह इच्छा काम है।.
काम - दूसरा मदनकाम है । पर स्त्री या अविवाहित स्त्रियों, विधवाओं के विषय में अष्टविध मैथुन-सेवन की अभिलाषा करना मदनकाम है।
कामसंवर-वेद-मोहनीय-कर्मोदयवश उत्पन्न कामवृत्ति का सम्यक् निरोध करना ।
कामभोग-तीव्राभिलाष—यह श्रावक के चतुर्थ अणुव्रत का अतिचार है। मदनकामविषयक तीव्र (उत्कट) इच्छा रखना, अथवा शब्द और रूप को काम तथा गन्ध, रस और स्पर्श को भोग कहते हैं, इन पाँचों विषयों की प्राप्ति की तीव्र इच्छा रखना भी काम-भोग तीव्राभिलाष है। इसे कामभोग तीव्राभिनिवेश भी कहते हैं ।
कामराग - मनोज्ञ स्त्री आदि कामभोग के साधनभूत अभीप्सित वस्तुओं के प्रति राग होना।
काय - (I) जाति-नामकर्म के उदयं का अविनाभावी त्रस स्थावर - नाम- कर्मोदयजनित आत्मा का त्रस े या स्थावरपर्याय काय कहलाता है, अथवा पृथ्वीकाय आदि नामकर्म-विशेष के उदय से प्राप्त अवस्था - विशेष को काय कहते हैं। (II) औदारिकादि शरीर नामकर्मोदयवश उन-उन पुद्गलस्कन्धों (पिण्डों ) का संचित होना काय है, इसे शरीर या देह भी कहते हैं।
कायक्लेश- वीरासन, पल्यंकासन आदि योगासनों, आतापना, परीषह-सहन, विविध प्रतिमा (प्रतिज्ञा ) आदि द्वारा धर्मपालन के लिए काया को कसना, कष्ट सहने योग्य बनाना, देह-दुःख को समभावपूर्वक सहन करना, सुखविषयक आसक्ति को, सुखशीलता को, एवं सुख-सुविधाओं को कम करना, तथा प्रवचन (धर्मतीर्थ ) की प्रभावना करना कायक्लेश नामक बाह्य तप है। शीत, उष्ण, आतप तथा विकृष्ट तप के द्वारा, क्षुधा आदि • बाधाओं के निरोध द्वारा, आसनाभ्यास द्वारा ध्यान अडोल हो सके; यह भी कायक्लेश तप का प्रयोजन है।
काय गुप्ति - (I) काया से सावध क्रियाओं का त्याग करना | (II) अथवा काया से बन्धन, छेदन, मरण, आकुंचन, प्रहार, प्रसारण आदि काय - क्रियाओं से निवृत्ति करना तथा शयन, आसन, आदान निक्षेपादि में यतनापूर्वक जीवरक्षा करते हुए चेष्टाएँ करना कायगुप्ति है। (III) उन्मार्ग में गमन करती हुई काया की गुप्ति = रक्षा करना भी कागुप्ति है | (IV) प्राणिपीड़ाकारिणी कायक्रिया से निवृत्ति |
कायसंयम—आवश्यक क्रियाओं को छोड़कर अन्य कार्यों के करने में कछुए के समान इन्द्रियों को गोपन - संकुचन करना तथा हाथ-पैर आदि अवयवों को शान्त रखना कायसंयम है।
कायस्थिति-औदारिक आदि शरीर को न छोड़ कर उसके रहने तक नाना भवों को ग्रहण करते हुए जितना काल बीतता है, उसका नाम कायस्थिति है।
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