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________________ ** पारिभाषिक शब्द-कोष * ४३१ * नहीं किया जा सकना निकाचित कर्म है। अर्थात् बद्ध कर्म की वह अवस्था, जिसमें उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण और उदीरणा नहीं हो सकती, वह निकाचित कर्मबन्ध है। निकाचित रूप से बद्ध कर्म का फल जिस रूप में बाँधा है, उसी रूप में अनिवार्यतः भोगना पड़ता है। बद्ध कर्म की निकाचित अवस्था चार प्रकार की है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप में। इसके विपरीत शेष सभी अनिकाचित कर्म कहलाते हैं; जिनके बन्ध के बाद उदय में आने से पूर्व तक उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण तथा उदीरणा एवं परिवर्तन प्रायः हो सकते हैं। ___ कर्मवाद-जिसमें शुभ, अशुभ, घाति, अघाति आदि कर्मों के आसव, बन्ध, उदय, उदीरणा, विपाक, स्थिति, अनुभाग, शुभाशुभ फल तथा कर्मों के निरोध, संवर, निर्जरा, सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष की चर्चा है, आत्मा से परमात्मा बनने का विभिन्न शास्त्रीय पहलुओं से प्रतिपादन है, वह कर्मवाद है। कर्मविज्ञान-कर्मवाद से भी अधिक स्पष्ट, प्रांजल तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष की सक्रिय साधना और उसके आधार का निरूपण है। कर्म का अथ से इति तक सुस्पष्ट प्रतिपादन है, वह कर्मविज्ञान है। कर्मचेतना-अपने स्वभावभूत ज्ञान को छोड़ कर अन्यत्र-पर में-'मैं करता हूँ', इस प्रकार का जो अनुभव होता है, इसे कर्मचेतना कहते हैं। कर्मफलचेतना-उदयागत कर्मफल को भोगता (वेदन करता) हुआ जीव शुद्ध आत्म-स्वरूप का चिन्तन करके इन्द्रियों के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों के निमित्त से स्वयं को सुखी-दुःखी अनुभव करता हुआ, प्राधान्यतः कर्मफल का ही वेदन करता है, वहाँ कर्मफलचेतना है। - कर्मप्रवादपूर्व-जिस पूर्व श्रुत में कर्म की बन्ध, उदय, उदीरणा, उपशम, निर्जरा, संवर आदि अवस्था-विशेषों का अनुभव तथा प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग एवं स्थितिरूप में बंधने वाले कर्म का विस्तृत वर्णन है, वह कर्मप्रवादपूर्व है। कर्मोपाधिक-जीवों की जो विभिन्नता कर्मजनित रागादि भावों के कारण दृश्यमान • होती है, वह कर्मोपाधिक कहलाती है। कल्प-(I) कुशल परिणाम से विवेकपूर्वक सावधानी के साथ बाह्य वस्तुओं का सेवन करना कल्प है। (II) कल्प का अर्थ आचार-मर्यादा है। इसलिए बृहत्कल्प एवं कल्पसूत्र भी हैं। (II) कल्प का एक अर्थ है-वैमानिक देव, जो सौधर्म से ले कर अच्युत पर्यन्त हैं, वे कल्प हैं, उन देवों के विमानों की भी कल्प संज्ञा है। इस कारण सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त १२ देवलोकों के देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं और इससे आगे के नवग्रैवेयक और पंच अनुत्तरविमानवासी देव कल्पातीत कहलाते हैं, क्योंकि वे इन्द्र, सामानिक आदि १० भेदों की कल्पना से रहित हैं, तथा अहमिन्द्र हैं। कल्पातीत उनको भी कहते हैं, जो साधक फल्प यानी आचार-व्यवहार की कल्पना से रहित हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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