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________________ * ४१२ * कर्मविज्ञान भाग ९ : परिशिष्ट * ___ आराधना-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप के आचरण, उद्योतन, उद्यापन, निर्वहन, साधना, निस्तरण एवं भावान्तर-प्रापण को आराधना कहते हैं। आराधक-अपने द्वारा गृहीत व्रत, प्रत्याख्यान, नियम, आचार आदि में कोई अतिचार (दोष) लगा हो, उसकी आलोचना, निन्दना, गर्हणा, प्रायश्चित्त, संलेखना-संथारा आदि करके आत्म-शुद्धि करने वाला आराधक होता है। ____ आर्जव धर्म-ऋजु = सरलभाव, ऋजु कर्म, भाव-विशुद्धि, कुटिलभाव छोड़कर निर्मल हृदय से विचरण आर्जव धर्म है। मन-वचन-काययोगों की अवक्रता आर्जव है। ___ आर्तध्यान-अनिष्ट-संयोग को दूर करने तथा इष्ट-वियोग को प्राप्त करने के लिए और आगामी काल में सुख-प्राप्ति की आकांक्षा, भोगाकांक्षा आदि निदान के लिए बार-बार चिन्तन करना आर्तध्यान है। आर्यकर्म-जो गुणों से युक्त हो, या गुणीजन जिसकी सेवा-शुश्रूषा करते हैं, जो पापवर्द्धक हेय कार्यों से दूर रहता है, वह आर्य है, आर्य का कर्तव्यकर्म आर्यकर्म है, श्रेष्ठकर्म है। उदार आचरण। आर्यस्थान श्रेष्ठ या उत्तम जनों के रहने योग्य स्थान। आलम्बन-ध्यान का आधारभूत कोई भी एक पदार्थ या पुद्गल आलम्बन कहलाता है। अथवा पंचसमिति के पालन के लिए चार निर्देश हैं आलम्बन, काल, मार्ग और यतना। यहाँ भी समिति-पालन के लिए कोई न कोई आलम्बन होना आवश्यक है। आलोचना-प्रायश्चित्त तप का एक प्रकार। जिसमें साधक या तो प्रतिक्रमण के समय स्वयं प्रमादजनित दोषों की आलोचना (आत्म-निरीक्षण) करता है, या वह गुरु आदि के समक्ष दस दोषों से रहित होकर अपने प्रमादजनित दोषों का सरल निश्छल होकर निवेदन करता है। __ आलोचनाह-ऐसा प्रायश्चित्त, जिसमें अपराधों की शुद्धि केवल आलोचना (माया और मद से रहित होकर सरलतापूर्वक) करने से ही हो जाती है, उसे आलोचनाई प्रायश्चित्त कहते हैं। ____ आलोचना-शुद्धि-क्रोधादि कषाय, इन्द्रिय-विषय, तीनों प्रकार का गौरव एवं राग-द्वेष से दूर हो कर आलोचना-यानी माया-मृषारहित आलोचना करने को आलोचना-शुद्धि कहते हैं। आवलिका-असंख्यात समय-समूह की एक आवलिका होती है। आवश्यक-श्रमणवर्ग और 'श्रावकवर्ग द्वारा दिन और रात में प्रमादवश हुए दोषों के निवारणार्थ जो षट् आवश्यकरूप धर्मक्रिया अवश्य की जाती है, उसे आवश्यक कहते हैं। आवीचिमरण-वीचि का अर्थ है-तरंग। तरंग के समान निरन्तर जो आयुकर्म के निषेकों का प्रतिक्षण क्रमशः उदय होता है, उसका अनुभव करना आवीचिमरण है। प्रतिक्षण भयंकर भावमरण भी आवीचिमरण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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