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* ३७० * कर्मविज्ञान: परिशिष्ट *
संवेग-निर्वेदादि उनपचास (४९) पदों का अन्तिम फल : सिद्धि-मुक्ति ३२४. त्रैकालिक तीर्थंकरों द्वारा उक्त चारित्रगुणों से सम्पन्न सिद्ध-बुद्ध-मुक्त ३२५, तीन स्थानों से सम्पन्न अनगार संसार-अरण्य से पार हो जाता
३२५, एक रात्रि की भिक्षुप्रतिमा के सम्यक् पालन का फल ३२५, शालवृक्ष, शालयष्टिका और उदुम्बरयष्टिका को भविष्य में मानव-भव पाकर मोक्ष प्राप्ति ३२७, विराधक अबीचिकुमार वैरानुबन्ध के कारण असुरकुमार देव बना ३२८, दस कारणों से जीव आगामी भद्रता के कारण शुभ कर्म का उपार्जन करता है ३३०, दस बातें प्रशस्त एवं अन्तकर ३३१|
(१३) मोक्ष- सिद्धि के साधन : पंचविध आचार
पृष्ठ ३३२ से ३५५ तक
यंत्रचालक पुर्जों और मशीन को चलाये नहीं तो लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक ३३२, मुमुक्षु आत्मा भी ज्ञानादि पंचाचारयुक्त आचारयंत्र को क्रियान्वित न करे तो हानि ही ३३२, आचाररूपी यंत्र को चलाते समय उपयोगशून्य ३३३, ये पाँच आचार केवल नाम, स्थापना, द्रव्यरूप में रहें तो भी मोक्षलक्ष्य की सिद्धि सम्भव नहीं ३३३, अथवा पंच- आचार को विपरीतरूप में अविधिपूर्वक क्रियान्वित करें तो भी कर्ममुक्तिरूप मोक्ष लाभ नहीं ३३४, पंचविध आचार के नाम पर अनाचार में पुरुषार्थ : कैसे-कैसे ? ३३४, पंचविध आचार का पालन केवल वीतरागता-प्राप्ति के लिए करे ३३६, दोषदूषित पंचाचार - पालन से वीतरागतारूप साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती ३३६, पंचाचार - साधना का विशिष्ट उद्देश्य : परमात्म-स्वरूप पाना ३३६, ऐसे सम्यक् आचार की क्या आवश्यकता है, क्या महत्त्व है ? ३३७, आदर्श सम्यक्आचार ही सर्वकर्ममुक्ति-प्रापक ३३८, आचारहीन व्यक्ति आदरणीय नहीं माना जाता ३३८, जो विचार या ज्ञान आचरण में नहीं है, वह बाँझ है, उससे कर्ममुक्ति नहीं हो पाती ३३९, केवल पाठ बोलना आचरणहीन तोतारटन है ३४०, आचारधर्म : सिर्फ उपासनात्मक न होकर जीवन में आचरणात्मक हो ३४०, धर्म क्या है, क्या नहीं ? ३४१, आत्मा का स्वभाव ही उसका धर्म है ३४१, आत्मा के चार निजी गुणों में रमण करने, पर-भावों से विरत और स्वभाव में स्थित होने हेतु पंचाचार हैं ३४२, आत्मा के निजी गुण = स्वभाव में आचरण करना ही धर्म है, पर भावों में रमण करना नहीं ३४२, इसी आत्म-धर्म की साधना के लिए ज्ञानादि पंचाचार हैं ३४२, ऐसे सम्यक् आचार के पाँच प्रकार ३४२, इन्हीं पाँच आचारों को पृथक्-पृथक् समझाने हेतु संख्या -भेद ३४३, आचार के पाँच भेद आत्मा के चार निजी गुणों को आत्मसात् करने के लिए हैं ३४३, चार आचार ही पर्याप्त हैं; पाँचवें वीर्याचार के कथन का क्या प्रयोजन ? ३४४, केवल ज्ञानाचार ही मोक्ष के लिए पर्याप्त नहीं, अन्य चार आचार भी अनिवार्य हैं ३४४, ज्ञानाचार को ही सर्वाधिक महत्त्व और प्राथमिकता क्यों ? ३४६, सम्यक् पंच- आचारों का प्रयोजन ३४७, ज्ञानाचार : स्वरूप तथा ज्ञान अज्ञान का अन्तर ३४९, ज्ञानाचार के आठ अंग : लक्षण और परिणमन ३४९, निश्चय ज्ञानाचरण का लक्षण ३५२, दर्शनाचार : लक्षण और अंग ३५२, निश्चय दर्शनाचार का लक्षण ३५३, व्यवहारदृष्टि से चारित्राचार : लक्षण और भेद ३५३, निश्चय चारित्राचार का लक्षण ३५४, तपाचार : लक्षण और भेद ३५४, वीर्याचार का स्वरूप और कार्य ३५५, पंचविध आचार सभी वर्गों के लिए पालनीय ३५५ ।
(१४) मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला : उपकारी समाधिमरण
पृष्ठ ३५६ से ३९३ तक
जीवन और मरण दोनों साथ-साथ चलते हैं ३५६, प्रतिक्षण होने वाले द्रव्य-भावमरण के प्रवाह में मत बहो ३५६, जीवन के दर्शन की तरह मरण के दर्शन को भी गहराई से समझो ३५७. मृत्यु के बिना जीवन की कोई मूल्यवत्ता नहीं है ३५७, जीवन को सुखद बनाने का जितना ध्यान है, उसका शतांश भी मृत्यु का नहीं ३५८, जीवन सबको प्रिय है, मृत्यु नहीं : क्यों और किसलिए ? ३५८, मृत्यु के पीछे जो अच्छाई है, उसे भी समझो ३५९, मृत्यु का आगमन निश्चित है ३५९, सम्यग्दृष्टि ज्ञानी मृत्यु से घबराते नहीं ३६०, मृत्यु से भयभीत होने का कारण ३६०. जीवनकला की तरह मृत्युकला में पारंगत ही सच्चा कलाकार , जिसके पास धर्म पाथेय है, वह मोक्षयात्री मृत्यु से घबराता नहीं, प्रसन्न होता है ३६१. मृत्यु की बात को टालने या भूलने से मृत्यु टल नहीं सकती ३६२, मृत्यु के प्रति भीति या भ्रान्ति, दोनों जीवन के प्रति आसक्ति और मोह बढ़ाती हैं ३६२. मृत्यु शान्तिदात्री. दयालु, महानिद्रा और नवजीवनदायिनी है, उससे डर कैसा ? ३६३, मृत्यु के स्मरण से अनेक लाभ ३६३, मृत्यु के आगमन से पूर्व ही हमें उसके स्वागतार्थ क्यों
३६१,
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तैयार रहें? ३६३, मृत्यु लाभदायक या हानिकारक ? किसके लिए और क्यों ? ३६४, उसके लिए मृत्यु
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