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________________ * ३५८ * कर्मविज्ञान : परिशिष्ट * (११) प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय पृष्ठ ३०५ से ३४३ तक सम्यक्तप की महिमा ३०५, तपःसमाधि कब और कब नहीं ? ३०५, बाह्य-आभ्यन्तर दोनों तपश्चरणों का लक्ष्य आत्म-शुद्धि ३०६, बाह्यतप : आभ्यन्तरतप का प्रवेश-द्वार ३०६, बाह्य तथा आभ्यन्तर तप का लक्षण ३०७, रुचि, क्षमता और योग्यता के अनुसार : बाह्य-आभ्यन्तरतप ३०७, बाह्यतप का महत्त्व, आभ्यन्तरतप से कम नहीं ३०८, आभ्यन्तर तपश्चरण के साथ बाह्यतप भी आवश्यक ३०९, बाह्य और आभ्यन्तरतप दोनों एक-दूसरे के पूरक ३०९, बाह्य और आभ्यन्तर दोनों तप अन्योन्याश्रित तथा सापेक्ष हैं ३१0, मन की दुष्प्रवृत्तियों को सप्रवृत्तियों में बदलना ही आभ्यन्तरतप ३११. सम्यक् आभ्यन्तरतप : लक्ष्य और उससे आध्यात्मिक गुणों का लाभ ३१२, प्रशम-सुख में लीन होना ही सम्यक्तप का उद्देश्य ३१२. मुमुक्षु के लिए बाह्य-आभ्यन्तरतप द्वारा साधना अनिवार्य ३१३, षड्विध आभ्यन्तरतप से मन का सर्वांगीण परिवर्तन ३१३, आभ्यन्तरतप में प्रायश्चित्त को ही प्राथमिकता क्यों ? ३१४, अभिवर्धन से पहले आत्म-शोधन करना अनिवार्य ३१५, प्रायश्चित्त का अर्थ और स्वरूप ३१५, अन्तःकरण की शुद्धि के बिना आत्म-साधना में सिद्धि सम्भव नहीं ३१६, अन्तर्मल को प्रायश्चित्ततप द्वारा शीघ्र दूर करना आवश्यक ३१७, पाप-शोधनरूप प्रायश्चित्त न करने पर जन्म-मरणादि का भयंकर दुःख ३१८, प्रायश्चित्त-प्रक्रिया के चार मुख्य चरण ३१८, पापनाश से चित्त-शुद्धि के लिए चार प्रक्रियाएँ ३१९, आलोचना के दो रूप और आत्मालोचना की प्रक्रिया ३१९, प्रतिक्रमण का माहात्म्य, उद्देश्य, स्वरूप और त्रिकाल-विषयत्व ३२0, द्रव्य और भाव से प्रतिक्रमण का आशयार्थ एवं फलितार्थ ३२१, भाव-प्रतिक्रमण से सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष-प्राप्ति ३२१, प्रतिक्रमण से आत्मा निर्दोष एवं समाधियुक्त हो जाती है ३२२, पंचविध प्रतिक्रमण ३२२, ऐपिथिक प्रतिक्रमण : क्या और कैसे? ३२२, अतिचारों का प्रतिक्रमण : पाठ द्वारा ३२३, दोष-शुद्धि करने का सरलतम अहिंसक उपाय : आत्मालोचना ३२४, प्रायश्चित्त का तृतीय चरण : निन्दना : स्वरूप और उपयोगिता ३२४, निन्दना के प्रयोग से भविष्य में उक्त पाप से पूर्ण विरक्ति ३२५, प्रायश्चित्त का चतुर्थ चरण : गर्हणा : पापविशोधन का तीव्रतम उपाय ३२६, निन्दना की अपेक्षा गर्हणा में अधिक मनोबल अपेक्षित ३२६, गर्दा के विभिन्न रूप और प्रकार ३२७, प्रयोग की अपेक्षा से गर्दा के तीन-तीन प्रकार और स्वरूप ३२८, गर्हा से आत्म-शुद्धि की एक सच्ची घटना ३२८, आलोचनादि कौन करता है, कौन नहीं करता? ३२९, गर्हणा से प्रशस्त योगों का, तथा घातिकर्म-क्षय का महालाभ ३३0, सुव्रत मुनि को स्वयंकृत आलोचना-निन्दना-गर्हणापूर्वक प्रायश्चित्त से केवलज्ञान ३३०, जो दीर्घकालिक कठोर अनशनादि तप नहीं कर सकते, उनके लिए प्रायश्चित्ततप में पराक्रम उचित ३३२, हार्दिक पश्चात्ताप : उदय में आने से पहले कर्मदहन करने का उपाय ३३२, आलोचना-निन्दना-गर्हणापूर्वक प्रायश्चित्त का शुभ परिणाम ३३३, गुरु आदि की साक्षी से की जाने वाली आलोचना का स्वरूप ३३३, आलोचना किस विधि से, किस प्रकार करनी चाहिए? ३३४, आलोचना करने वाले की अर्हताएँ ३३४, आलोचनादि-सम्मुख व्यक्ति भी आराधक है : क्यों और कैसे? ३३५. आलोचना से आध्यात्मिक उपलब्धियाँ ३३५, आलोचनादि प्रायश्चित्त एक प्रकार की आध्यात्मिक चिकित्सा है ३३६, प्रायश्चित्त चिकित्सा और मनोकायिक चिकित्सा की प्रक्रिया ३३६, मनोवैज्ञानिक चिकित्सक भी मनोरोगी से सब कुछ खुलवाता है ३३७, थॉम्पसन का मनोरोग डॉ. ग्रोसमैन ने उनकी मानसिक चिकित्सा करके मिटाया ३३७, आलोचना सुनकर प्रायश्चित्त देने वाले गुरु की आठ गुणात्मक अर्हताएँ ३३८, प्रायश्चित्ततप के दस प्रकार और उनका स्वरूप ३४२. जाहिर सभा में आलोचना प्रायश्चित्त की प्रक्रिया ३४३| (१२) निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्यतप पृष्ठ ३४४ से ३७६ तक प्रायश्चित्त के पश्चात् विनयतप का क्रम क्यों ? ३४४, विनय का अर्थ और परिष्कृत लक्षण ३४४, विनय के तीन अर्थ प्रतिफलित होते हैं ३४५, अहं की गाँठ खुले बिना कोई तार नहीं सकता ३४६. विनय के सात प्रकार और इन सब में अहंकार बाधक ३४६, ज्ञानादि सप्तविध विनय का स्वरूप एवं फलितार्थ ३४७, दर्शनविनय का परिष्कृत स्वरूप ३४८, दर्शनविनय के मूल और उत्तर भेद ३४८, दर्शनविनय से संवर, निर्जरा, मोक्ष और पुण्य-वृद्धि का सरलतम उपाय ३४९, अनाशातनाविनय का स्वरूप और आचरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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