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________________ * विषय-सूची : छठा भाग * ३४७ * ३४०. बाह्य और कृत्रिम साधनों से जीवन क्षणिक सुखी बनता है ३४१, कष्टों को सहन न करने वाले की प्राण-शक्ति क्षीण ३४१, असहिष्णुता अशान्ति एवं कर्मबन्ध का कारण है ३४२, सन्तुलित मनःस्थिति बनाये रखने के लिए सहिष्णुता आवश्यक ३४२, कष्ट-सहिष्णुता ही श्रेयस्कर मार्ग ३४३, असहिष्णुता और सहिष्णुता के परिणामों में अन्तर ३४४, जान-बूझकर कष्ट सहने से क्या लाभ क्या हानि ? ३४४, स्वैच्छिक कष्ट-सहन भी कब परीषह-विजय, कब नहीं? ३४५, ज्ञानपूर्वक कायक्लेश तप कष्ट-सहन क्षमता बढ़ाने हेतु है ३४५, कायक्लेश में मृदुता और कठोरता दोनों हैं ३४६, श्रमणत्व की सुदुष्करता के पीछे तात्पर्य ३४७, कायक्लेश और परीषह-सहन दोनों भिन्न-भिन्न हैं ३४७, कायक्लेश के पीछे भी सापेक्ष दृष्टि ३४७, शीत-उष्ण परीषह का तात्पर्य और उस पर विजय कैसे ? ३४८, गृहस्थ-साधक के जीवन में भी परीषह-विजय की उपयोगिता ३४९, परीषह-सहन कष्ट - सहिष्णुता बढ़ाने के लिए है ३५०, परीषह - विजय कर्मजनित दुःखों से मुक्ति का पथ है ३५०, परीषह-सहन के दो उद्देश्य : मार्गाच्यवन और निर्जरा ३५०, परीषह-सहन में शक्ति का प्रकटीकरण ३५१, परीषह-सहिष्णुता के विकास के लिए धृति अपेक्षित है ३५२, सर्वाधिक कठिन भावनात्मक परीषह प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ३५४ धृति और आत्म-शक्ति का विकास : सहिष्णुता के लिए सहायक ३५४, आदर्श स्पष्ट हो, तभी धृति और प्रसन्नता जाग्रत होती है ३५५, भगवान महावीर द्वारा परीषह-सहन का आदर्श प्रस्तुत ३५५, सहिष्णुता के छोटे लक्ष्य : संवर-निर्जरा के कारण : कब और कैसे ? ३५६, धार्मिक कौन, अधार्मिक कौन ? ३५७, सच्चे धार्मिक की पहली कसौटी : सहिष्णुता ३५७, सच्चे धार्मिक की पहचान ३५८, सामूहिक जीवन में सहिष्णुता आवश्यक ३५८, पारिवारिक जीवन में सहिष्णुता का आदर्श ३५९, वर्तमान में वैचारिक- आचारिक सहिष्णुता का प्रायः अभाव ३५९, सहिष्णुता का विकास होने पर ३६०, सहिष्णु बनकर सिद्धान्त पर अडिग रहने का सुपरिणाम ३६०, कष्ट-सहिष्णुता का विलक्षण प्रभाव ३६०, परीषह - विजय के लिए क्षमा अमोघ -साधन ३६१ । (१९) चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन पृष्ठ ३६२ से ३८१ तक मोक्ष का साक्षात्कारण ३६२, विभिन्न पहलुओं से सम्यक्चारित्रस्वरूप ३६३, निश्चयदृष्टि से सम्यक्चारित्र के विभिन्न लक्षण ३६५, निश्चयचारित्र और व्यवहारचारित्र का समन्वय ३६७, सरागचारित्र और वीतरगाचारित्र में अन्तर ३६८, प्रधान रूप से उपादेय : वीतरागचारित्र ३६८, निश्चयचारित्रलक्षी व्यवहारचारित्र सार्थक है ३६९, व्यवहारचारित्र की सार्थकता ३६९, निश्चयचारित्र साध्य है, व्यवहारचारित्र उसका साधन ३७०, व्यवहारपूर्वक ही निश्चयचारित्र की उत्पत्ति ३७१, सरागचारित्र भी परम्परा से मोक्ष का उपाय व कारण है ३७१, सरागचारित्र और वीतरागचारित्र दोनों में साध्यसाधनभाव ३७२, एक ही चारित्र में युगपत् दो अंश ३७३, असंख्यातगुणी निर्जरा का विधान ३७४, असंख्यातगुणी निर्जरा: क्यों और कैसे ? ३७४, निश्चय - सापेक्ष व्यवहार और व्यवहार - सापेक्ष निश्चय ३७५, व्यवहारचारित्र कथंचित् उपादेय है : क्यों और कैसे ? ३७६, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिकचारित्र के लक्षण ३७७, सामायिकादि पाँच चारित्रों का स्वरूप ३७७ सामायिकचारित्र : लक्षण, प्रकार और परम्परागत विधि ३७८, छेदोपस्थापनीयचारित्र : दो अर्थ, दो प्रकार ३७८, दिगम्बर परम्परा में छेदोपस्थापनीयचारित्र का स्वरूप ३७९, श्वेताम्बर- परम्परा में परिहारविशुद्धिचारित्र का स्वरूप और विधि ३७९, यथाख्यातचारित्र : श्वेताम्बर - परम्परा की दृष्टि में ३८०, दिगम्बर- परम्परामान्य यथाख्यातचारित्र ३८१, पाँचों चारित्रों में विशुद्धिलब्धि : उत्तरोत्तर अनन्तगुणी ३८१, चारित्र का पृथक् कथन : सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष प्राप्ति प्ररूपणार्थ ३८१ । (२०) सम्यक्त्व - संवर का माहात्म्य और सक्रिय आधार पृष्ठ ३८२ से ४१९ तक अनादि मिथ्यात्व को सम्यक्त्व - प्राप्ति का अपूर्व आनन्द लाभ ३८२, सम्यक्त्व - प्राप्ति से ही भव-संख्या सीमित होती हैं ३८४, सम्यक्त्व के बिना व्रत-नियमादि मोक्ष के कारण नहीं ३८५. सम्यक्त्व मोक्ष का द्वार ३८५, बोधि, श्रद्धा, सम्यक्त्व या सम्यग्दृष्टि परम दुर्लभ है ३८६, सम्यक्त्व का जीवन पर सुप्रभाव ३८८, . सम्यग्दर्शन की सम्पन्नता से महालाभ ३८९, सम्यक्त्व-संवर-प्राप्ति हेतु विमर्शनीय बिन्दु ३९०, सम्यक्त्व - संवर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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