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* ३२२ * कर्मविज्ञान: परिशिष्ट *
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कर्मबन्ध प्रकृति अनुभाग नहीं हो सकती क्यों और कैसे ? १७६. बन्ध के ये चारों रूप स्वतः कैसे निष्पन्न हो जाते हैं ? १७७, खाये हुए पदार्थ के पचाने, रस बनाने और कमी की पूर्ति करने की प्रक्रिया स्वतः १७७, दवा डालते हैं पेट में, परन्तु ठीक करती है रुग्ण अवयव को १७८, योग और कपायों के निमित्त से स्वतः चारों प्रकार के बन्ध होते हैं १७८, कर्मबन्ध-चतुष्टय विभाग : दो अपेक्षाओं से १७९, बन्ध की चारों अवस्थाओं को समझाने के लिए नोदकों का दृष्टान्त १७९, प्रकृतिबन्ध की विशेषता १८१, स्थितिबन्ध की विशेषता १८१, रसबन्ध कब, कैसे, किस प्रकार का ? १८२, क्लिप्ट अध्यवसायों की तीव्रता - मन्दता के अनुसार रसबन्ध १८२, प्रदेशबन्ध की विशेषता १८३, चतुःश्रेणी कर्मबन्ध : कर्मद्रव्य के द्रव्यादि स्व-चतुष्टय १८३, कर्मबन्ध के साथ चतुःश्रेणी बन्ध अवश्यम्भावी १८४ ।
(१३) प्रदेशबन्ध : स्वरूप, कार्य और कारण
पृष्ठ १८५ से १९६ तक
१८७,
सूत के धागों की संख्या की तरतमता के अनुसार वस्त्र-निर्माण १८५, कर्मवर्गणा 'कें आकर्षण के समय सर्वप्रथम प्रदेशबन्ध होता है १८५, प्रदेश और प्रदेशबन्ध का स्वरूप और कार्य १८६, प्रदेशबन्ध : लक्षण, कार्य और स्वरूप १८६, प्रदेशबन्ध में योगों की तरतमता के अनुसार कर्मपुद्गल-प्रदेशों का बन्ध प्रदेशबन्ध : आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मप्रदेशों का बद्ध हो जाना १८७, प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध को प्राथमिकता क्यों ? १८८, अनन्तानन्त: कर्म-परमाणुओं से गठित स्कन्ध ही प्रदेशबन्ध का विषय १८९, प्रदेशबन्ध अनन्तानन्त प्रदेशों का ही होता है : क्यों और कैसे ? १८९, अनन्तानन्त परमाणु-निर्मित स्कन्ध आत्मा के समग्र कार्मणशरीर के साथ मिश्रित होते हैं १८९. प्रदेशबन्ध का परिष्कृत लक्षण १९०, प्रदेशबन्ध के परिष्कृत लक्षण में कर्मस्कन्धों का आत्म- प्रदेश से बन्ध कैसा ? १९१, नई कर्मवर्गणाएँ पुराने कर्मों से क्यों और कैसे चिपकती हैं? १९१, प्रदेशबन्ध के परिष्कृत लक्षण में आठ प्रश्नों के उत्तर समाहित १९२, पूर्वोक्त सूत्र में निहित प्रदेशबन्ध से सम्बन्धित आठ प्रश्नों के उत्तर १९२, गृहीत कर्मस्कन्धों का विभाजन, आठ कर्मों में से किसको कितना, किस क्रम से और क्यों ? १९३, बद्ध कर्मों का आठ कर्मों में विभाजन क्यों और कैसे होता है ? १९३, योगबल के अनुसार ही कर्मों के न्यूनाधिक प्रदेशों का बन्ध १९४, प्रदेशरूप से बद्ध कर्मपुद्गलों में से किस कर्म को कितना भाग मिलता है ? १९५, आठ कर्मों में इस प्रकार के विभाजन का रहस्य १९५, गृहीत कर्मदलों का विभाजन किस क्रम से और क्यों होता है ? १९६, गृहीत कर्मदलों के बन्ध के अनुसार कर्मों में प्रदेशों का विभाजन १९६, प्रदेशबन्ध से अनन्तानन्त कर्म-प्रदेशों का आठ कर्मों में विभाजन १९६ ।
(१४) प्रकृतिबन्ध : मूल प्रकृतियाँ और स्वरूप
पृष्ठ १९७ से २०८ तक
अनन्त संसारी जीवों के पृथक्-पृथक् स्वभाव पर से उनकी विशेषता का निर्णय १९७, कर्मों के पृथक्-पृथक् स्वभाव पर से उनका पृथक्करण १९७, प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में प्रकृति के अर्थ और लक्षण १९८, बद्ध कर्मों की प्रकृति पर से मानव-व्यक्तित्व का ज्ञान १९८, कर्मप्रकृति को जानने से स्वभाव और जीवन में परिवर्तन १९९, कर्मप्रकृतियों से अज्ञ : दोहरे व्यक्तित्व से संत्रस्त १९९, कर्मप्रकृतियाँ : आत्मा के मूल स्वभाव की आवारक, सुषुप्तिकारक, मूर्च्छाकारक और प्रतिरोधक २०० कर्म की चार घाति प्रकृतियों में प्रबल : मोहनीय कर्म २०१, आत्मा के आठ गुणों की बाधक : आठ कर्मप्रकृतियाँ २०२, एक ही कर्म : अनेकविध स्वभाव, प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में २०४, गृहीत कर्मपुद्गल - परमाणुओं का आठ प्रकृतियों में परिणमन कैसे ? २०४, युगल कर्मप्रकृतियों में से दो में से एक के हिस्से में प्रकृति-परिणमन २०५, जीव के योग-उपयोग द्वारा चित्रविचित्र कर्म : कर्मप्रकृतियों की कर्मशरीर में निष्पत्ति २०५, अदृश्य कर्म के कार्य-विशेष से तत्कारणभूता प्रकृति का अनुमान २०५ कर्म के इतने भेद-प्रभेद क्यों ? एक कर्मका प्रतिपादन क्यों नहीं ? २०६, आठ ही कर्म: सर्वज्ञों द्वारा प्रतिपादित: नौवाँ नहीं २०७. आठ मूल कर्मप्रकृतियों का यह क्रम क्यों ? २०७, कर्मप्रकृति को पहचानना सर्वप्रथम आवश्यक २०८।
(१५) मूल कर्मप्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण
पृष्ठ २०९ से २४६ तक प्रकृतिबन्ध : गृहीत कर्मपुद्गलों का आठ प्रकृतियों में विभाजन २०९, कर्मवर्गणा-स्कन्धों में विविध फलदान के स्वभाव की उत्पत्ति २०९, आठ कर्मों की प्रकृति का उपमा द्वारा निरूपण २१०, आठ कर्मों का
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