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________________ * ३१६ * कर्मविज्ञान: परिशिष्ट * आत्मवान् पहचान ९९५, भौतिक धन की अपेक्षा आत्मज्ञानरूपी धन को अपनाओ ९९५, अध्यात्म-संवर की साधना का प्रथम पड़ाव : आत्म-ज्ञान - आत्म-दर्शन ९९६. आत्मज्ञान का तात्पर्य अपने आपको तथा आत्म- गुणों पहचानना ९९६, आत्मा के अष्टविध रूपों में से कौन-से हेय, कौन-से उपादेय? ९९६, त्रिविध आत्मा में बहिरात्मा का चिन्तन और मनोवृत्ति प्रवृत्तियाँ ९९७ इन्द्र और विरोचन की आत्मज्ञान-पिपासा में अन्तर ९९८, आत्मज्ञान की निष्ठा के अभाव में बहिरात्मा बने हुए व्यक्ति की करुण दशा ९९८, आत्मज्ञानहीन व्यक्ति वृक्ष की तरह स्थिति-स्थापक, आत्मिक उत्क्रान्ति परायण नहीं ९९९, आत्मज्ञान से विकास की और अज्ञान से विनाश की सम्भावनाएँ १०००, अपनी आत्मा से सत्य का अन्वेषण करो : यही आत्मज्ञान का रहस्य है १००१, अध्यात्म-संवर की दृष्टि : भौतिकता-प्रधान दृष्टिको बदलने से १००१, अध्यात्म-संवर में बाधक-साधक : अपनी ही विपरीत दृष्टि, मान्यता एवं वृत्ति १००२, असीम सुख अपनी आत्मा में ही है, बाह्य पदार्थों और विषयों में नहीं १००३, आत्मा ही कर्म बाँधती है, वही कर्मों से मुक्त होती है : क्यों और कैसे ? १००५, सुख-दुःख, बंध-मोक्ष या उत्थान-पतन, अपने हाथ में १००५, आत्म-निग्रह-अध्यात्म-संवर ही सब दुःखों से मुक्त होने का उपाय १००६: सुख का मूल धर्म है, पर धर्म से हीन लोग स्वच्छन्दाचारी होकर दुःख पाते हैं १००६-१००८। (१८) अध्यात्म-संवर की सिद्धि : आत्मशक्ति, सुरक्षा और आत्मयुद्ध से पृष्ठ १००९ से १०४५ तक प्राप्त शक्तियों का दुरुपयोग या अनुपयोग दोनों ही शक्तिनाश के कारण १००९, अनन्त शक्तिघन आत्मा की शक्तियों का दुरुपयोग और सदुपयोग कब और कैसे होता है ? १००९, अर्जित या प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग मुख्यतया आठ कारणों से करते हैं १०१०, आत्मशक्ति की आराधना को छोड़कर शरीरादि शक्तियों की आराधना कितनी निकृष्ट ? १०१०, आत्मबल की वृद्धि के बजाय शरीरादि बल बढ़ाते हैं १०१२, भौतिक बलों का मनमाना उपयोग : आत्मिक सम्पदा नष्ट करने में १०१२, आत्मा की रक्षा : क्यों और कैसे हो ? १०१३ शक्तियों का दुरुपयोग रोकने से आत्मिक शक्ति संचित - विकसित होती है १०१३, आध्यात्मिक संवर का अभ्यास : सभी शक्तियों का क्षरण रोकने का कारण १०१५, आत्मशक्तियों का संचय : क्यों और किसलिए ? १०१५, अध्यात्म-संवर के सन्दर्भ में आत्मशक्ति-संचय के चार मूलाधार १०१६, आत्मशक्ति-संचय का प्रथम मूलाधार : दृढ़ संकल्प १०१६, आत्मशक्ति-संचय का द्वितीय मूलाधार : प्रचण्ड मनोबल १०१६, मनोबल के लिए कठोर आत्मानुशासन की आवश्यकता १०१७, अध्यात्म-संवर के साधक की कठोर अग्नि परीक्षा कब और कैसे ? १०१७, कषायों तथा विकारों के आम्रवं छिद्रों को प्रचण्ड मनोबल से ही रोका जा सकता है १०१८, आत्मशक्ति संचय का तृतीय मूलाधार विश्वास १०१८, आत्मशक्ति संचय का चतुर्थ मूलाधार : सत् श्रद्धा १०१९, अध्यात्म-संवर की साधना की सिद्धि के लिए आत्मयुद्ध अनिवार्य १०२०, बाह्ययुद्ध अनर्थकर एवं अनार्ययुद्ध है १०२१, भगवान महावीर ने भी बाह्ययुद्ध को छोड़ आत्मयुद्ध की प्रेरणा दी १०२१, आचारांगसूत्र की दृष्टि से : आत्मयुद्ध : क्यों और किसके साथ ? १०२३, आन्तरिक युद्ध के लिए दो अमोघ शस्त्र प्रज्ञा और विवेक १०२३, आन्तरिक शत्रुओं से लड़ो, बाह्य शत्रुओं से नहीं : मनोविज्ञान और अध्यात्म विज्ञान से सम्मत १०२४. बाह्य संघर्ष की उत्तेजना पैदा करने वाली जैनदर्शन- सम्मत आम्रवबन्धकारिणी पाँच वृत्तियाँ १०२४, बाह्य संघर्ष का प्रमुख कारण : मिथ्यात्ववृत्ति १०२५, बाह्य संघर्ष का द्वितीय कारण : अविरति की वृत्ति १०२५, बाह्य संघर्ष का तृतीय कारण: प्रमादवृत्ति १०२५, बाह्य संघर्ष का चतुर्थ कारण : कषायवृत्ति १०२७, बाह्य संघर्ष का पंचम कारण मन-वचन-काय (योग) की अशुद्ध प्रवृत्ति १०२७, आत्मदमन : एक प्रकार का आध्यात्मिक आत्मपीड़न १०३१, आत्मयुद्ध का दूसरा उपाय या प्रकार शमन उपशम १०३४, शमन की विविध प्रक्रियाएँ और आगमों में यत्र-तत्र शमन -निर्देश १०३५. आत्मयुद्ध का तीसरा प्रकार : उदात्तीकरण १०३७, आत्मयुद्ध का चौथा प्रकार : समत्व में स्थिरीकरण १०३८, आत्मयुद्ध का पाँचवाँ प्रकार प्रतिक्रमण १०४०, आत्मयुद्ध का छठा प्रकार प्रत्याख्यान १०४३. आत्मयुद्ध का सप्तम प्रकार : आत्मस्वरूप- स्मृति- जागृति १०४३-१०४५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only •• www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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