________________
* विषय-सूची : द्वितीय भाग * ३०१ *
की बुद्धि तीन मिथ्या मान्यताओं से भ्रष्ट और दुष्परिणाम ४२२. पापकर्मों का दुष्फल : अनेक रूपों में दुःखों का चक्र ४२३, जीव-हिंसा का फल भी उतना ही दुःखद और भयंकर ४२३, पुण्यकर्म और पापकर्म के सुफल और दुष्फल के सर्वज्ञोक्त शास्त्रीय उदाहरण ४२४, अष्टादशविध पापकर्मों के बन्ध का बयासी प्रकार से फलभोग ४२४, पापकर्मजनित दुःखों के लिए व्यक्ति स्वयं ही उत्तरदायी ४२५, अनेक दुःखों से बार-बार त्रस्त होने पर भी पापकर्मों को नहीं छोड़ते ४२६, अज्ञान दूर होने पर ही पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष का ज्ञान सुदृढ़ होता है ४२७, चाहता है सुखरूप पुण्यफल, किन्तु प्रवृत्त होता है दुःखफलदायी पापकर्म में ४२८, पापकर्म के फलस्वरूप सोलह दुःसाध्य रोगों की उत्पत्ति ४२८, पुण्यकर्म भी स्वार्थ-लोभादि से प्रेरित हो तो सात्त्विक सुखरूप फल-प्राप्ति नहीं होती ४२९, वास्तविक पुण्यकर्म में स्वार्थ-त्याग, तप और बलिदान की भावना होती है ४३०, यह पुण्यकर्म नहीं, कल्याणकारक नहीं, व्यवसाय है ४३०, जिससे लौकिक लाभ मिल चुका, उससे फिर पारलौकिक लाभ कैसे मिलेगा? ४३०, शुभाशुभ परिणामों (भावों) के अनुसार ही पुण्यकर्म और पापकर्म का बन्ध व फल ४३१, पापकर्म के दुष्फल से बचाव : सदाचार-सत्कर्म-नीति-परायण रहकर पुण्यकर्म करने से ही ४३१, फल की दृष्टि से पुण्यकर्म और पापकर्म की पहचान ४३२, पापकर्म का फलविपाक : पहले आपातभद्र, किन्तु परिणाम में भद्र नहीं ४३२, पुण्यकर्म का फलविपाक : पूर्व में आपातभद्र नहीं, परिणाम में भद्र ४३३, फलदान-शक्ति की अपेक्षा से पुण्य-पाप कर्मफल के कारणों की मीमांसा ४३४, पुण्य-पाप के फल के सम्बन्ध में भ्रान्ति ४३४, धर्म-पुण्य से अर्थ और काम की प्राप्ति का नारा ४३५, इस भ्रान्ति के कारण कामनामय पुण्योपार्जन ही प्रधान बन गया, धर्म-पुरुपार्थ गौण ४३५, नीतिमय धर्म-पुरुषार्थ प्रत्यक्ष, पुण्य के द्वारा प्राप्तव्य : परोक्ष एवं सन्देहास्पद ४३६, धर्म एवं पुण्य से सुख के साधन मिलते हैं, यह भ्रान्ति है ४३६, शुभाशुभ कर्मफलविपाक भी क्षेत्र, काल, पुद्गल और जीव के आश्रित ४३६. पुण्यकर्म का फल धनादि है तथा धनादि से व्यक्ति सुखी हो जाता है : इस भ्रान्ति का निराकरण ४३७, गृहस्थ श्रावक के धर्म और पुण्य के आचरण में त्याग, तप, मर्यादा का उपदेश ४३८, धनादि पदार्थों के होने से सुखी, न होने से दुःखी : यह भ्रान्ति है ४३८, धनादि साधन स्वयं न तो सुखकर हैं, न ही दुःखकर ४३९, वर्तमान युग में धन कमाने की मूर्छा से धनिकों को सुख-शान्ति कहाँ ? ४३९, परिग्रह-संज्ञा मोहरूप पापकर्म के उदय से होती है ४३९. पुण्य से विषय में जैन विद्वानों और लेखकों की भ्रान्ति ४३९. एक भ्रान्ति : भाग्य की, विधाता की लिपि को कौन मिटा सकता है? ४४0, जीव स्वयं ही भाग्यविधाता, स्वयं ही अपना पतनकर्ता ४४०, शुभ-अशुभ कर्म शरीरादि कार्यों के प्रति निमित्तकारण, उपादानकारण नहीं ४४१, भोगादि के साधन अधिक होने से पुण्य अधिक नहीं ४४१, इष्ट-अनिष्ट संयोग भी पुण्य-पाप का फल नहीं ४४२, परिग्रहादि की न्यूनता : अधिक पुण्यकर्म का कारण : अधिक परिग्रह पुण्यकारक कैसे? ४४२, जगत् को दो प्रकार की व्यवस्था : शाश्वतिकी और प्रयत्न साध्य ४४३. पुण्यकर्म का फल भौतिक लाभ ही है या आत्मिक लाभ भी? ४४५, पुण्य-पाप कर्म का फल परलोक में ही नहीं, इस लोक में भी मिलता है ४४६, पापकर्मी सभी सुखी और पुण्यकर्मी सभी दुःखी नहीं दिखाई देते ४४७-४४८। (१०) पुण्य-पाप के फल : हार और जीत के रूप में
पृष्ठ ४४९ से ४६६ तक . पुण्य-पाप के खेल में एक की जीत और एक की हार : क्यों और कैसे ? ४४९, हरिकेशबल मुनि ने पापमयी स्थिति पर विजय प्राप्त करके पुण्यमयी और मोक्षसुखमयी बना ली ४४९, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती पुण्य-पाप के खेल में हारता ही गया ४५०, संगम ने पापमयी स्थिति से सँभलकर पुण्यराशिबन्ध किया ४५0, कर्म के शुभ-अशुभ फल की दृष्टि से प्ररूपित चतुभंगी ४५१, पुण्य-पाप के खेल में हार-जीत के रूप में फल का स्पष्टीकरण ४५२, पापरूप फल को कुशल-अकुशल कर्म-खिलाड़ी द्वारा पुण्य-पाप फल में परिणत ४५३, पुण्य और पाप की क्रिया का फल भावों पर निर्भर ४५६, शुभ-अशुभ कर्मफल के विषय में एक चतुर्भगी ४५६. पूर्वोक्त चतुर्भगी का फलितार्थ, निष्कर्ष और रहस्य ४५७, पूर्वोक्त चतुभंगी का फलितार्थ ४५७, मम्मण सेठ : पहले पुण्यवन्ध का और बाद में अशुभ भावों के कारण पापफल का प्रतीक ४५८, चण्डकौशिक : पूर्वकृत पापबन्ध, किन्तु इस जन्म में पुण्यकर्म करके शुभ फलभोग का प्रतीक ४५९, श्रीपाल : पूर्वकृत अशुभ कर्मबन्ध के कारण अशुभ. किन्तु शुभाचरण द्वारा उनका शुभ फलों में परिवर्तन ४५९, पापकर्म-लिप्त प्रदेशी अरमणीय से रमणीय बनकर शुभ फलभागी बना ४६०, सुबाहुकुमार : प्राप्त भी शुभ, बद्ध कर्म भी शुभ और फलभोग भी शुभ ४६०, कालसौकरिक : बद्ध है अशुभ (पाप) कर्म और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org