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________________ * विषय-सूची : प्रथम भाग * २८३ * वैदिकदृष्टि से कर्मवाद का समुत्थान २७५, वैदिक की अपेक्षा जैन-परम्परा में कर्मवाद का सांगोपांग विकास २७७, जैन-साहित्य में कर्मवाद की प्रांजल व्याख्या २७८, कर्मवाद का विकास-क्रम : साहित्य-रचना के सन्दर्भ में २७९, I पूर्वात्मक कर्मशास्त्र २७९, II पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र २७९, III प्राकरणिक कर्मशास्त्र २८0, विकास के सर्वोच्च शिखर पर कर्मवाद : कब और कैसे ? २८४/ (६) कर्मशास्त्रों द्वारा कर्मवाद का अध्यात्म-मूलक सर्वक्षेत्रीय विकास पृष्ठ २८५ से २९४ तक कर्मशास्त्र में शरीरादि का वर्णन आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर २८५, कर्मशास्त्र में शरीर-सम्बन्धी वर्णन : एक समीक्षा २८५, शरीरशास्त्र और मानसशास्त्र की अपेक्षा कर्मशास्त्र की विशेषता २८६, कर्मशास्त्र अध्यात्मशास्त्र से भिन्न नहीं २८८, अध्यात्मशास्त्र के उद्देश्य की पूर्ति ही कर्मशास्त्र करता है २८९, कर्मशास्त्र अन्तरंग कारण बताता है २९२, कर्मशास्त्र द्वारा धर्मध्यान का निर्देश २९३-२९४। (७) कर्मवाद पर प्रहार और परिहार पृष्ठ २९५ से ३०१ तक विचार-शक्ति की भिन्नता के कारण कर्मवाद का खण्डन और मण्डन २९५, कर्मवाद पर मुख्यतः तीन प्रहार २९६, I पहला प्रहार २९६. II दूसरा प्रहार २९६, III तीसरा प्रहार २९६, उक्त प्रहारों का क्रमशः परिहार २९७, I प्रथम प्रहार का परिहार २९७, II द्वितीय प्रहार का परिहार २९७, III तीसरे प्रहार का परिहार ३०0, सृष्टिकर्तृत्व एवं एकेश्वरत्व का समन्वयात्मक समाधान ३0१। (८) कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी वाद-१ पृष्ठ ३०२ से ३१५ तक कर्मवाद को चुनौती देने वाले छह वाद ३०२, एकान्तवाद मिथ्या है ३०३, कालवाद-मीमांसा ३०३, स्वभाववाद-मीमांसा ३०६, यदृच्छावाद-मीमांसा ३०८, नियतिवाद-मीमांसा ३०९, नियतिवाद का आध्यात्मिक रूप ३१४-३१५। (९) कर्मवाद के अस्तित्व-विरोधी वाद-२ पृष्ठ ३१६ से ३३२ तक भूतवाद-समीक्षा ३१६. भूत-चतुष्टय की प्रक्रिया ३१७, भूत-चतुष्टयवाद का मन्तव्य ३१७, डार्विन का विकासवाद : भौतिकवाद का रूप ३१८, पुरुषवाद-मीमांसा ३२०, ब्रह्मवाद ३२०, ईश्वरवाद ३२३, ईश्वरकर्तृत्ववाद युक्ति-वाधित ३२४, जगत् के उद्धार के लिये ईश्वर की जरूरत नहीं ३२५, कौन-से वाद हेय, कौन-से उपादेय? ३२६, कर्मवाद की जड़ काटने वाले कुछ वाद ३२६, I अक्रियावाद ३२६, II अज्ञानवाद ३२७, III अनिश्चयवाद या संशयवाद ३२८, IV प्रच्छन्न नियतिवाद ३२९, V विनयवाद ३३0, VI क्रियावाद ३३0, VII एकान्त-ज्ञानवाद ३३०, प्रकृतिवाद ३३१. अव्याकृतवाद ३३१-३३२ । (१०) कर्मवाद के सन्दर्भ में पंच-कारणवादों की समीक्षा और समन्वय पृष्ठ ३३३ से ३५१ तक अनेकान्तवादी जैनदर्शन का मन्तव्य ३३३, विश्व-वैचित्र्य के पाँच कारण ३३३, छह कारणवादों में कर्म और पुरुषार्थ का उल्लेख क्यों नहीं ? ३३३, प्रत्येक कार्य में पाँच कारणों का समवाय और समन्वय मानना उचित ३३४. संसार का प्रत्येक कार्य : पाँच कारणों के मेल से ३३५, कालादि तीनों वाद : कब आंशिक सत्य, कब सम्पूर्ण सत्य? ३३५, एकान्त-कालवाद की समीक्षा ३३५, एकान्त-स्वभाववाद की समीक्षा ३३६, एकान्त-नियतिवाद की समीक्षा ३३६, कर्मवाद-मीमांसा ३३८, कर्मवाद की समीक्षा ३४१, पुरुषार्थवाद की मीमांसा ३४५, पुरुषार्थवाद-समीक्षा ३४७, पाँच कारणवादों का समन्वय ३४८, सर्वत्र पंच-कारण-समवाय से कार्यसिद्धि ३४९, वस्त्र-निर्माण कार्य में पंच-कारण-समवाय ३४९, आम्रफल-प्राप्ति में पंच-कारण-समवाय ३४९, विद्याध्ययन-कार्य में पंच-कारण-समवाय ३४९, मोक्ष-प्राप्तिरूप कार्य में पंचकारण-समवाय ३५०, कार्य में इन पाँचों की गौणता-मुख्यता संभव ३५0. जगत्वैचित्र्य का प्रधान कारण : कर्म ३५१, चैतन्य का स्व-पुरुषार्थ ही उत्तरदायी ३५१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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