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* ६४ * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
(३०) तीर्थंकर के लिए समवसरण की रचना होती है; जबकि सामान्य केवली के लिए समवसरण की रचना नहीं होती ।
(३१) तीर्थंकर का किसी विशेष अपवाद के सिवाय प्रथम उपदेश खाली नहीं जाता; जबकि सामान्य केवली के लिए ऐसा नियम नहीं है ।
(३२) तीर्थंकर के अवशिष्ट चार अघातिकर्मों में से वेदनीय कर्म का उदय शुभ - अशुभ दोनों प्रकार का होता है, शेष तीन अघातिकर्म एकान्त शुभ होते हैं; जबकि सामान्य केवली के आयुष्यकर्म और गोत्रकर्म शुभ होते हैं, शेष. दो अघातिकर्म शुभ-अशुभ दोनों होते हैं।
(३३) सामान्यतया अभव्य प्राणी तीर्थंकर की सभा में नहीं आता; सामान्य केवली की सभा में आ सकता है।
(३४) तीर्थंकर के अर्थरूप उपदेश से गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं; सामान्य केवली के ऐसा नहीं होता । '
(३५) जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार तीर्थंकरों में तीर्थंकरत्व औदयिक (कर्मोदयजनित) प्रकृति है, वह तीर्थंकर नामकर्म का फल है; जबकि अरिहन्तदशा अथवा केवलज्ञान की अवस्था क्षायिकभाव है, वह किसी कर्म का फल नहीं है, ज्ञानावरणीय आदि घाति चतुष्टय कर्म के क्षय का फल है, क्षायिक अवस्था है।
ये और ऐसे ही कतिपय चिन्तन - बिन्दु हैं, जिनसे सामान्य अरिहन्त ( केवली) और विशिष्ट (उत्कृष्ट पुण्यातिशयवान् ) तीर्थंकर अरिहन्त (केवली) का अन्तर समझा जा सकता है।
तीर्थंकर अरिहन्त का लक्षण
तीर्थंकर अरिहन्त के पुण्यातिशय को लेकर उनके और सामान्य अरिहन्तों (अरहंतों) के लक्षण और स्वरूप तथा विशिष्ट गुणों में भी अन्तर पाया जाता है। सामान्य अरिहन्तों (अरहंतों) के लक्षण तथा विशिष्ट गुणों का निरूपण हम पिछले पृष्ठों में कर चुके हैं। पुण्यातिशयरूप विशिष्ट अरिहन्त का लक्षण 'मूलाचार' में इस प्रकार किया गया है—“जो नमस्कार करने योग्य हैं, लोक में पूजा के योग्य हैं तथा देवों में उत्तम हैं, वे अरिहन्त (अर्हन्त तीर्थंकर) हैं। जो वन्दना और नमस्कार के योग्य हैं, पूजा और सत्कार के योग्य हैं, सिद्धि (मुक्ति) गमन के योग्य हैं, इस कारण से अरहन्त (अर्हन्त तीर्थंकर) कहे जाते हैं ।" 'धवला' के अनुसार“अतिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन्त संज्ञा प्राप्त होती है ।" " द्रव्यसंग्रह टीका' में
१. 'जैनभारती, वीतराग वन्दना विशेषांक' ( सितम्बर - अक्टूबर ९४ ) से भाव ग्रहण, पृ. १३३-१३४
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