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* ६० * कर्मविज्ञान : भाग ९ *
(२) मृषावाद, (३) अदत्तादान, (४) क्रीड़ा, (५) हास्य, (६) रति, (७) अरति, (८) शोक, (९) भय, (१०) क्रोध, (११) मान, (१२) माया, (१३) लोभ, (१४) मद, (१५) मत्सर, (१६) अज्ञान, (१७) निद्रा, और (१८) प्रेम (राग)। ये अठारह दोष भी सामान्य अरिहन्तों और तीर्थंकर अरिहन्तों में नहीं पाये जाते क्योंकि ये सब दोष भी चारों घातिकर्मों के कारण पैदा होते हैं।' ____ तीर्थंकर अतिशय पुण्य राशि से युक्त होने के कारण विशिष्ट अरिहन्त (सयोगी केवली) होते हैं। उनका विशिष्ट स्वरूप, परिभाषा तथा विशिष्ट बारह गुण, अतिशय एवं तीर्थंकरपद-प्राप्ति के कारणों पर अगले निबन्ध में प्रकाश डाला जाएगा।
१. (क) पंचेव अंतराया मिच्छत्त मन्नाणमविरह कामो।
हास-छग राग-दोसा, निद्दाऽट्ठारस इमे दोसा॥ (ख) हिंसाइतिगं कीला, हासाइपंचगं च चउकसाया।
भव-मच्छर-अन्नाणा, निद्दा पिम्मं इअ व दोसा॥ (ग) अन्तराया दान-लाभ-वीर्य-भोगोपभोगाः।
हास्यो रत्यरतीभीतिर्जुगुप्सा शोक एव च॥१॥ कामो मिथ्यात्वमजानं निद्रा चाविरतिस्तथा। रागो द्वेषश्च नो दोषास्ते पामष्टादशाऽप्ययी ॥२॥
-सत्तरिसय ठाणा वृत्ति, द्वार ९६, गा. १९२-१९३; प्रवचन सारोद्धार, द्वार ४१, गा. ४५१-४५२; जैनतत्त्व प्रकाश, पृ. १६-१८
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