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________________ * अरिहन्त : आवश्यकता, स्वरूप, प्रकार, अर्हता, प्राप्त्युपाय * ५१ * अतएव ऐसे वीतराग अरिहन्त परमात्मा का ध्यान करने-चिन्तन-मनन करने तथा उनका अवलम्बन लेने से आत्मा में वीतरागभाव का संचार होता है। योगशास्त्र' में कहा गया है "वीतराग (राग-द्वेषरहित) का ध्यान (चिन्तन-मनन-प्रणिधान) करने से मनुष्य स्वयं वीतराग (रागादिरहित) होकर कर्मों से मुक्त हो जाता है, जबकि रागी का आलम्बन लेने वाला मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि विक्षेप या विक्षोभ पैदा करने वाली सरागता को प्राप्त करता है।" यह तो सर्वविदित है कि एक रूपवती रमणी के संसर्ग से साधारण मनुष्य के मन में एक विलक्षण प्रकार का भाव उत्पन्न होता है। पुत्र या मित्र को देखने और मिलने पर वात्सल्य या स्नेह जाग्रत होता है और एक समभावी साधु के दर्शन से हृदय में शान्तिपूर्ण आह्लाद का अनुभव होता है। सज्जन का सान्निध्य सुसंस्कार का और दुर्जन का संग और सान्निध्य कुसंस्कारभाव पैदा करता है। इस दृष्टि से जब वीतराग प्रभु का सान्निध्य प्राप्त किया जाता है, तब हृदय में अवश्य ही वीतरागता के भाव एवं संस्कार जाग्रत होते हैं। वीतराग देव का सान्निध्य पाने का अर्थ हैउनका भजन, स्तवन, नाम-स्मरण, गुणगान, नमन, आज्ञा-पालन, श्रद्धा-भक्तिपूर्वक समर्पण आदि। अरिहन्त का विराट रूप और स्वरूप पहले बताया गया था कि अरिहन्त का स्वरूप दर्शन अपनी शद्ध आत्मा का स्वरूप दर्शन है। अतः अब हम ‘अरिहंत' के स्वरूप की थोड़ी-सी झाँकी यहाँ दे अरिहन्त कौन है, क्या है ? : इसे प्रथम स्थान क्यों ? जैनधर्म में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, ये पाँच आध्यात्मिक • गुणों के विकास से प्राप्त होने वाले महान् आत्मा माने गए हैं। ये पाँच पद किसी व्यक्ति-विशेषं के नाम नहीं हैं, परन्तु गुणवाचक पद हैं। जैनधर्म मोक्ष-प्राप्ति में किसी भी वेश की, लिंग की, सम्प्रदाय-विशेष की रोक नहीं लगाता। उसमें स्त्री भी मुक्त हो सकती है, पुरुष भी। तीर्थंकर भी मुक्त हो सकते हैं, सामान्य जन भी, स्व-लिंगी और अन्य-लिंगी भी मुक्त हो सकते हैं, साधु भी मुक्त हो सकते हैं, गृहस्थवेशी भी मुक्त हो सकते हैं। जैनधर्म में इन सब के लिये एक ही शर्त है-राग-द्वेष के विजय की। जिसने भी राग-द्वेष को जीता, मोह को नष्ट कर दिया, वही जैनधर्म की दृष्टि में भगवान, १. वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन्। रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात् क्षोभणादिकृत्॥ ___-योगशास्त्र (हेमचन्द्राचार्य), श्रु.९, श्लो. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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