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* १६ * कर्म-सिद्धान्त : बिंदु में सिंधु *
अस्तित्व के विषय में शंका और अनास्था प्रगट करते हैं, इसका निराकरण करने के साथ ही कर्मविज्ञान ने . बताया है कि कर्म के अस्तित्व के प्रति अनास्था और शंका प्रगट करने से कितनी हानि, कितनी अराजकता. आपाधापी और अव्यवस्था संसार में छा जायेगी? तथा कर्मों से मक्त होने के लिए तप, संयम, धर्माचरण आदि में पुरुषार्थ की व्यर्थता भी हो जायेगी। साथ ही यह भी बताया है किसी संयमी या धर्मात्मा पर दःख और पापात्मा या असंयमी पर वर्तमान में सख वर्तमान के आचरण के कारण नहीं. किन्त इस जन्म में या पूर्वजन्म में पूर्वबद्ध शभ या अशभ कर्मों के कारण है। साथ ही कर्मविज्ञान ने कर्म के अस्तित्व के साथ ही आस्तिकता के भगवक्त मुख्य चार अंगों को अपनाने आवश्यक बताए हैं-(१) आत्मा की परिणामी नित्यता-शाश्वतता, (२) कर्मसंयुक्त आत्मा के पुनर्जन्म और पूर्वजन्म (स्वर्ग-नरकादि लोक) के प्रति श्रद्धा, (३) शुभाशुभ कर्म का फल शुभाशुभ मिलने (कर्मवाद) के प्रति आस्था: (४) सक्रिया और दुष्क्रिया के फल (क्रियावाद) के प्रति आस्था।
___ कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन कर्मों से मुक्तात्मा को कर्मवाद को मानना अनिवार्य रहा
द्वितीय खण्ड में कर्मवाद का प्रागैतिहासिक, ऐतिहासिक एवं अध्यात्म मनीषियों और मुमुक्षुओं की दृष्टि से व्यवस्थित पर्यालोचन किया गया है। भारतवर्ष में जितने भी तीर्थंकर, अवतार, सर्वज्ञ, केवलज्ञानी, ऋषि, मुनि, श्रमण-श्रमणी, साधु-संन्यासी, महामनीषी अथवा धर्मधुरन्धर, श्रमणोपासक अथवा गृहस्थसाधक हुए हैं, उन सबने अपने-अपने ढंग से अध्यात्म-साधना करते समय आत्मा के साथ जन्म-जन्मान्तर से बद्ध कर्मों को आत्मा से पृथक् करने का पुरुषार्थ किया है। उन अध्यात्म-शक्तियों ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप अथवा ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग की; तप, त्याग और संयम की; व्रतों और महाव्रतों को आराधना-साधना करते समय भी कर्मबन्ध करने वाली इहलौकिक-पारलौकिक फलाकांक्षा, प्रशंसा, प्रसिद्धि, कीर्ति, आसक्ति, राग-द्वेष-मोह. हिंसादि अशुद्ध साधना, मिथ्यादृष्टि आदि दूषित बातों को नहीं अपनाने का ध्यान रखा। आत्म-गुणों के विघातक चार घातिकर्मों को क्षय करके ही वे स्वयं वीतराग, सर्वज्ञ एवं जीवन्मुक्त परमात्मा बने। साथ ही संसार के भव्य जीवों को भी कर्मों से मुक्त होने का अनुभवज्ञानरूप प्रसाद वितरित किया। ___ उन्होंने अपने पर आये हुए भयंकर कष्टों, उपसर्गों, विनों और दुःखों के निवारण के लिए न तो किसी अन्य शक्ति, देवी-देव या भगवान अथवा परमात्मा से सहायता की व संकट से उबारने की प्रार्थना या याचना की और न ही आये हुए कष्टों और दुःखों के लिए देव, गुरु, धर्म अथवा विभिन्न निमित्तों को कोसा। उन्होंने अपने उपादान को ही टटोला कि मेरी ही आत्मा ने पूर्वजन्म या इस जन्म में कोई अशुभ कर्म किया है, उसी का यह फल है। इसे समभावपूर्वक भोग लेने से इन कर्मों से छुटकारा होगा। कर्म मैंने स्वयं बाँधे हैं, इसलिए इन्हें मैं स्वयं ही क्षय कर सकूँगा। कर्म को आत्मा से पृथक् करने के लिए सभी मुक्तिकामी आत्माओं ने स्वयं पराक्रम किया
ऐसे दृढ़ निश्चय के साथ उन्होंने कर्मों को आत्मा से अलग करने के लिए कमर कस ली, जैसा कि उत्तराध्ययन, दशवकालिक आदि आगमों में उनके लिए कहा गया-"परीषह-रिपुओं का दमन करने वाले. मोह को प्रकम्पित करने वाले जितेन्द्रिय महर्षि सर्वदुःखरूप कर्मों को क्षीण करने के लिए स्वयं पराक्रम करते हैं तथा वे षट्कायरक्षक परिनिर्वृत (शान्त मनस्वी) संयम और तप से पूर्व कर्मों का क्षय करके सिद्धि (सर्वकर्ममुक्ति) के मार्ग को क्रमशः प्राप्त हुए।" यही कारण है कि श्रमण भगवान महावीर ने अपनी शुद्ध आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों से जूझने के लिए इन्द्र आदि किसी की सहायता लिये बिना कटिबद्ध हो गए। उन्होंने अपने जीवन द्वारा सिद्ध करके बता दिया स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा ही व्यक्ति कर्मों से युक्त और कर्ममुक्त परमात्मा बन सकता है।
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