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* कर्म - सिद्धान्त: बिंदु में सिंधु * १३ *
स्वतः बंद हो जाती हैं; फिर देखना, सुनना, सूँघना, स्पर्श करना, खाना-पीना, सोचना आदि क्रियाओं की शक्ति भी नष्ट हो जाती है। यहीं उस व्यक्ति का खेल खत्म हो जाता है, इसके पश्चात् न कहीं से आना है, न कहीं जाना है। अतः इन सब क्रियाकलापों में कर्म नाम की कोई वस्तु दिखाई नहीं देती । '
कर्म का कार्यकलाप प्रत्यक्ष होने से उसका अस्तित्व सिद्ध होता है
है।
इसके उत्तर में भगवान महावीर ने प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा कर्म का अस्तित्व सिद्ध करके बताया है। उन्होंने कहा - आत्मादि अमूर्त पदार्थ तथा कर्मपुद्गल चतुःस्पर्शी होने से परोक्षज्ञानियों द्वारा इन्द्रियग्राह्य या चर्मचक्षुओं द्वारा ग्राह्य नहीं होते । किन्तु वीतराग सर्वज्ञ पुरुषों को अतीन्द्रिय ज्ञानी होने से दोनों ही प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। अतः जो वस्तु एक को प्रत्यक्ष हो, वह संसार में सबको ही प्रत्यक्ष हो, ऐसा कोई नियम नहीं जगत् में सिंह, व्याघ्र आदि अनेक वस्तुएँ सभी मनुष्यों प्रत्यक्ष नहीं होते, फिर भी यह कोई नहीं कहता कि जगत् में सिंह आदि प्राणी नहीं हैं। इसी प्रकार से कर्म का अस्तित्व उसके चतुःस्पर्शी होने पर भी सर्वज्ञों को उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष है, जबकि अल्पज्ञों को नहीं होता। जैसे अल्पज्ञों (छद्मस्थों) को बिजली प्रत्यक्ष नहीं होती, फिर भी उसके द्वारा होने वाले या चलने वाले पंखा, कूलर, हीटर, टी. वी., वीडिओ आदि बिजली के कार्य प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, इससे बिजली के अस्तित्व को मानना ही पड़ता है, उसी प्रकार कर्म चाहे छद्मस्थों को प्रत्यक्ष न हो, किन्तु उसके कार्यकलाप सुख-दुःख, सम्पत्ति - विपत्ति, दीनता - हीनतातेजस्विता, दीर्घायुष्कृता-अल्पायुष्कता, मन्दबुद्धि- तीव्रबुद्धि आदि कार्य प्रत्यक्षवत् दिखाई देता है, इसलिए कर्म के परिणामस्वरूप होने वाले कार्यों को देखकर उसका अस्तित्व मानना ही चाहिए । २
अनुमान आदि विविध प्रमाणों से भी कर्म का अस्तित्व सिद्ध
इस सन्दर्भ में युक्ति, सूक्ति और महान् पुरुषों की अनुभूति आदि माध्यमों से तथा प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति आदि प्रमाणों से यहाँ कर्म का अस्तित्व सिद्ध किया गया है।
इसके अतिरिक्त आत्मा की विभिन्न अवस्थाएँ, गति, इन्द्रिय, कायादि पूर्वोक्त चौदह प्रकार की मार्गणाओं द्वारा होने वाली जीवों की पृथक्-पृथक् अवस्थाएँ, चौरासी लाख जीव योनि के अनन्त प्राणियों की भित्र-भिन्न अवस्थाएँ, व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्नता का मूल आधार तथा मानव जाति के पारिवारिक, सामाजिक, नैतिक, राजनैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि जीवन क्षेत्रों में पाई जाने वाली नाना विभिन्नताएँ तथा और भी संसारी जीवों की चित्रविचित्र भिन्नताएँ कर्मकृत हैं, कर्मोपाधिक हैं। इस पर से भी कर्म का अस्तित्व सिद्ध होता है । ३
अन्य दर्शनों और धर्मों ने भी कर्म का अस्तित्व माना है
जैनदर्शन के अतिरिक्त बौद्धदर्शन, मीमांसादर्शन, वेदान्तदर्शन, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य और योग आदि दर्शनों ने तथा भगवद्गीता एवं उपनिषदों ने कर्म का अस्तित्व एक या दूसरे प्रकार से माना है, जिसका उनके ग्रन्थों के प्रमाण सहित उल्लेख 'कर्मविज्ञान' ने किया है।
इसके प्रतिवाद के रूप में कतिपय नास्तिक मतवादी कहते हैं-घट, पट आदि की तरह आत्मा किसी भी प्रकार से विभिन्न कर्मों से संश्लिष्ट होता हुआ या विभिन्न कर्मबन्ध करता हुआ अथवा कर्मों को क्ष करता हुआ प्रत्यक्ष तो दिखाई नहीं देता, तब हम कैसे मान लें कि आत्मा विभिन्न कर्मों को करती है तथा उनके फलस्वरूप सुख-दुःख आदि प्राप्त करती है ? एवं कर्मों से आंशिक या पूर्णतः मुक्त होती है ? हम आत्मा ही नहीं मानते, तब कर्म के अस्तित्व को मानने का प्रश्न ही नहीं है ।
१. देखें - कर्मविज्ञान भाग १ में पृष्ठ १५८ पर २. देखें - कर्मविज्ञान, भाग १ में पृष्ठ १५९ पर ३. (क) कम्मुणा उवाही जाय ।
(ख) देखें - कर्मविज्ञान, भाग १, पृ. ११६-१३३
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